मुखर-मौन
कल तक जहाँ गूँजती थी तलवारों की आवाज़
दिल को डरा डरा देती थी, धनुषों की टंकार
बरछे, भाले, तोप के गोले, खड्ग और कटार
अपनी अपनी शक्ति परखने को कर रहे प्रहार
मस्त मलंगा हाथी की भी सुन पड़ती चिंघाड़
घायल योद्धा चीख रहे थे मचता हाहाकार।
घोड़े के टापों से गुंजित था यह सकल प्रदेश
नित्य कर रहीं धारण वनिता, विधवाओं का वेश।
हुआ समाप्त युद्ध अब, नीरवता का है साम्राज्य
शांत सभी सोये पृथ्वी पर, होकर के निरुपाय।
शांत हुआ कोलाहल रण का, चीख रहा है मौन
मानवता के इस विनाश का, उत्तरदायी कौन?
लहू बह रहा जो धरती पर करने लगा पुकार
एक रंग का वास सभी में, तन हों विविध प्रकार
जिसे लालसा थी पाने की धरती पर अधिकार
सिमट गया केवल दो गज में उस नृप का आकार।
नीरवता अब मुखर हो रही फटे जा रहे कान
क्या पाने की खातिर तुमने आज गंवाई जान?
मृत्युलोक में आए थे तुम बनकर एक मेहमान
प्रेम बिखेरो, प्रेम समेटो, रहे सुरक्षित मान।
धरा कर रही थी हर्षित हो पूर्ण तेरा सत्कार
तूने प्रत्युत्तर में चाहा, उस पर एकाधिकार।
माता है यह सब पुत्रों पर रखती है समभाव
नहीं चाहती कभी किसी को कोई मिले अभाव।
भूल गया तू है अभ्यागत, चार दिवस इस द्वार
जाना अपने धाम तुझे, सब छोड़ यहाँ उपहार
पाने को ज़्यादा फिर ज़्यादा, रचता क्यों षड्यंत्र
प्रेम मूल है शांति विटप का, स्वयं सिद्ध यह मंत्र।
डॉ मंजु सिंह गुप्ता