मुक्त कविता
29/12/2021
एक पाती गुमी हुई
फिजाओं के नाम
कुछ भी किसी से कहना,
कहाँ आसां है।
खुद के बजूद को खोकर ही !
कुछ कह पाओगे।
लगेगा जोर का झटका,
कहर कुदरत की
इंसाफी का।
भूलना चाहकर उसको,
कभी ना भूल पाओगे
रोना अब ये आंखों का,
जमाना भी न देखेगा।
हृदय के रोने पर
न आँसू होंगे न पानी होगा।
बनी रहेगी हमेशा,
ये दुनियाँ अंजानी।
रुसवाइयों के कहर का
कोई क्या करे यारो,
गूंगे बहरों के शहर की,
हर गली हर छत है,बिल्कुल बेगैरत,बेगानी।
कहीं गुमचों की रौनकें,
जो फिजाँ में बहारें यदि
उठा लाएं?
पलट उजड़े हुए गुलशन में,
वापस फ़िजां की वो बाहर आये।
जलेगी हर समय मद्धिम
शमा अंदर उम्मीदों की
क्या पता? इस शहर की
लौट फिर से बहार आये।
प्रवीणा त्रिवेदी प्रज्ञा
नई दिल्ली 74
29/12/2021
एक पाती गुमी हुई
फिजाओं के नाम
किसी से कुछ भी कहना,
कहाँ आसां है।
खुद का बजूद खोकर ही !
होता कह पाना है।
लगेगा जोर का झटका,
कुदरत की इंसाफी का।
भूलना चाहकर उसको,
कभी ना भूल पाओगे
रोना अब ये आंखों का,
जमाना भी न देखेगा।
हृदय के रोने पर
न आँसू होंगे न पानी होगा।
बनी रहेगी हमेशा,
ये दुनियाँ अंजानी।
रुसवाइयों के कहर का
कोई क्या करे यारो,
गूंगे बहरों के शहर की,
हर गली हर छत है,बिल्कुल
बेगैरत,बेगानी।
कहीं गुमचों की रौनकें,
जो फिजाँ में बहारें यदि
उठा लाएं?
पलट उजड़े हुए गुलशन में,
वापस वो फ़िजां आये।
जलेगी हर समय मद्धिम
शमा अंदर उम्मीदों की
क्या पता? इस शहर की
लौट फिर से बहार आये।
प्रवीणा त्रिवेदी प्रज्ञा
नई दिल्ली 74