मुक्ति और मृत्यु
मुक्ति और मृत्यु
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रोको न अभी,
मुझे जाने दो
ले लो सब अपना,
मुझे जाने दो!
जीवन भर मैं बँधी रही
मां के आंचल में छुपी रही,
हुई सयानी तो भैया आया
भैया के डर से डरी रही,
बन तितली उड़ना चाहा
जीवन में कान्हा आया
छोड़ गया वह मुझको
रुकमणी संग ब्याह रचाया !
कहां खुशी है जीवन में,
झूठा प्यार है बागों में
माता-भाई-पिता छोड़ रहे
डोली भेजकर आगों में।
देख हँसी हँसना चाहा
पराया खुद को मैंने पाया।
जिसे मैं समझी थी परमेश्वर
उसने भी मुझको शर्त बताया,
बँधी रही जंजीरों में
बढ़ती रही सभ्यता के शमशीरों में
कोई खता हुई जब मुझसे
बोली लगी अंजीरों में
गुलशन में फूल खिले
फूल क्यों त्रिशूल बने?
मांग रही थी आजादी मैं
मगर मुझे तो शूल मिले।
अब सब कुछ तेरा, मेरा क्या
जहां खुशी है मुझे जाने दो
सच वहां न बंधन कोई होगा
मुक्त गगन बन जाने दो!
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कवि-ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’
पता-खजुरी खुर्द कोरांव,प्र..
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