मुक्तछंद काव्य का शिल्प विधान
“मुक्त छंद का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छंद सिद्ध करता है और उसका नियमारहित्य उसकी ‘मुक्ति”।“
……………………………………………………. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’/ ‘परिमल’ #
महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने मुक्त छंद को हिन्दी काव्य में संस्थापित किया। उनका उपरोक्त कथन मुक्तछंदीय कविता को छन्दयुक्त कृतियों के मध्य एक सार्थकता प्रधान करता है
हमेशा जब मुझसे पूछा जाता है कि मुक्तछंद/ स्वच्छंद छंद/ अतुकांत कविता में आप कवितायेँ क्यों लिखतें हैं तो अनायास ही मुख से निकल पड़ता है भावों के तीव्र वेग मुझे भावों को छंदों में बांधने का अवसर ही नहीं देते। जैसे ही भाव आतें हैं , लिख देता हूँ या यूँ कहूं को लिख लिख जाते हैं। मन कहता है, मस्तिष्क समझता है और उँगलियाँ थिरक उठती हैं कागज़ पर, टंकण मशीन या फिर लैपटॉप के की बोर्ड पर। यह नहीं कि मैं छंदबंध कविता नहीं लिख सकता, लिख सकता हूँ और लिखी भी हैं पर जब बात मुक्तछंद की आती है तो मैं कहता हूँ :-
“रचनायें न तोलो छंद मापनी की तराज़ू में
मेरी भावनाओं को खुला आसमान चाहिए।”
……………………………………..(बस एक निर्झरणी भावनाओं की/त्रिभवन कौल )
मुझसे फिर पूछा जाता है कि मुक्तछंद की क्या कोई अपनी विधा है ? इसका विधान/ शिल्प क्या है , जैसे कि दोहों, मुक्तक ,चौपाई,रोला, कुंडलिनी इत्यादि में होता है ? जवाब तो वैसे होना चाहिए कि छंदमुक्त का अर्थ ही जब छंदों से मुक्त रचना से है तो इसमें छंद विधि -विधान का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता पर मैं समझता हूँ की बेशक छंदमुक्त रचना में वार्णिक छंदों या मात्रिक छंदों की तरह वर्णो की या मात्राओं की गणना नहीं होती पर एक अच्छी छंदमुक्त रचना का निम्नलिखित मापदंडों पर आंकलन करना आवश्यक हो जाता है। यही मापदंड मुक्तछंद कविताओं की विधा को दर्शाते और सार्थक करतें हैं।
1) कहन में संवेदनशीलता :- विषय में विषय के प्रति कवि कीं पूर्ण ईमानदारी और संवेदनशीलता होना आवश्यक है। कवि का अपनी बात रखने के एक ढंग होता है कविता किसी भी प्रकार की क्यूँ न हो, किसी भी विचारधारा को प्रकट क्यूँ न करती हो, असत्य नहीं होती. हाँ उस सत्य को दर्शाने के लिए कल्पना का सहारा एक आवश्यक साधन बन जाता है. चूँकि सत्य हमेशा से कटु रहा है तो विषय के प्रति संवदेनशीलता बरतना कवि का कर्तव्य हो जाता है।
2) प्रभावात्मकता :- जब तक एक छंदमुक्त कविता में सशक्त भाव , सशक्त विचार और सशक्त बिम्ब नहीं होंगे, रचना की प्रभावात्मकता ना तो तीक्ष्ण होगी ना ही प्रभावशाली । कविता अगर केवल भावनात्मक हो या केवल वैचारिक तो पाठक शायद उतना आकर्षित न हो जितना की उस प्रस्तुति में जंहाँ दोनों का समावेश हो. कोरी भावनात्मकता या कोरी वैचारिकता कविता के प्रभाव को क्षीण ही करतें हैं।
3) भाव प्रवाह :- छंदमुक्त कविता में भावों का निरंतर प्रवाह होना आवश्यक है अर्थात किसी भी बंद में भावों की शृंखला ना टूटे और पाठक को कविता पड़ने पर मजबूर करदे।
4) भाषा शैली :- मुक्तछंद कविता की भाषा शैली अत्यंत ही सहज, सरल और सर्वग्राही होनी चाहिए। यदि कंही कंही तुकांत भी हो जाए तो कविता का काव्य सौंदर्य निखर उठेगा। कहने का तात्पर्य है कि मुक्तछंदीय कविता गद्य स्वरूप नहीं लगनी चाहिए।
फेसबुक जैसी सोशल मीडिया पर कई बार पाया गया है कि किसी भी गद्य को टुकड़ों में बाँट कर उसको मुक्तछंद कविता के नाम से प्रकाशित किया जाता है। ऐसे दुष्प्रयासों से रचना एक अर्थहीन गद्य ही बन कर रह जाती है ना की कविता। मुक्तछंद या छंदमुक्त कविता में कविता के वह सारे गुण होने ज़रूरी हैं जो अपने प्रवाह से, कभी कभी गेयता से, तुकांत से मापनी रहित काव्य को एक ऐसा रूप दें जो मनोरंजन के साथ साथ एक गहन विचार को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके। यथा :-
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।
मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;
सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिराएँ हुईं रक्त-वाह ले,
मिलीं – तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।……………………………..सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता/प्राप्ति
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता प्राप्ति में कंही भी गद्य का आभास नहीं होता। पर एक प्रवाह है , एक मधुरिम से गेयता का आभास होता है और एक विचार है जो मन को झंकृत करने में समर्थ है। मुक्तछंद /छंदमुक्त/अतुकांत रचना का स्वरूप भी ‘रसात्मक वाक्यम इति काव्यम’* को चरितार्थ करना ही होना चाहिये ।
मुक्तछंदीय कविताओं में कोई नियमबद्धता नहीं है फिर भी उपरोक्त तत्व एक कविता को काव्य सौंदर्य प्रधान करने में और पाठकों के मन में अपनी छाप छोड़ने मंन सफलता प्राप्त करती है।
उर्दू के मशहूर शायरे आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब उस काल में भी भविष्य के निराला जी के शीर्ष कथन का अनुमोदन करते नज़र आते हैं जब ग़ालिब कहते हैं :-
“बकर्दे-शौक नहीं जर्फे-तंगनाए ग़ज़ल,
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये”………….(गालिब)#
(बकर्दे-शौक: इच्छानुसार, ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल: ग़ज़ल का तंग ढांचा, वुसअत: विस्तार ।)
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर उनकी उस मज़बूरी को बयान करता है जिसमे वे अपनी इच्छानुसार अपनी बात को ग़ज़ल के तंग ढांचे में/ बंदिशों में रह कर नहीं सकते थे और उनको अपनी बात रखने के लिए उन्हें अधिक विस्तार की आवश्यकता प्रतीत होती थी । मुक्तछंद में रचना करने का साहस अगर पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के उपरांत किसी कवि-शायर ने मुझे दिया है तो वह उर्दू के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर ने दिया जिसका भाव यह है की कवि बंदिशों में रह कर/ छंदों के विधि विधान में रह कर अपनी भावनाओं को थोड़े विस्तार के साथ या मुक्त हो कर नहीं कह सकता है ।
लेकिन यहाँ विस्तार का मतलब काव्य को गद्य रूप देना कतई नहीं है अपितु काव्य रस की व्यवस्था को ध्यान में रख कर मुक्तछंद के रचनाकार अपनी छंदमुक्त/स्वच्छंद छंद रचना को वैचारिक, भावपूर्ण कथ्य को प्रवाह और यति (जो अधिकतर अदृश्य रहता है )द्वारा सार्थकता प्रदान करता है। पंक्तियों के अंत तुकांत हो तो सोने पर सुहागा पर आवश्यक नहीं।
प्यार
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प्यार न वासना है न तृष्णा है
न है किसी चाहत का नाम
प्यार एक कशिश है
भावनाओं का महल है
जिसमे एहसास की इटें हों
विश्वास की नीव हो
संवेदना का गारा हो
गरिमा का जाला हो
तब प्यार की बेल
आकाश को छूती
पनपती है
यही सृजन है और सृजन
सृष्टि का जन्मदाता है.
———————त्रिभवन कौल
त्रिभवन कौल
स्वतंत्र लेखक -कवि
e-mail : kaultribhawan@gmail.com
blog : www.kaultribhawan.blogspot.in
*आचार्य विश्वनाथ (पूरा नाम आचार्य विश्वनाथ महापात्र) संस्कृत काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ और आचार्य थे। वे साहित्य दर्पण सहित अनेक साहित्यसम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता हैं।