मुक्तक
मुक्तक-
जिसे दे खून पुरखों ने सजाया है सँवारा है।
वहां पर बह रही देखो चतुर्दिक पाप धारा है।
नहीं है काम हाथों को भ्रमित है आज की पीढ़ी,
बने खुशहाल निज भारत यही सपना हमारा है।।
सुनाई दे रहा केवल ,यहाँ हर ओर नारा है।
मुकम्मल वोट की खातिर ,रचा ये खेल सारा है।
सियासत लोग करते हैं बहा घड़ियाल के आँसू,
बने अनजान बैठे हम ,यही रोना हमारा है।।
डाॅ बिपिन पाण्डेय