मुक्तक
कुछ और नहीं हिय कान्हा के,प्रतीबिंबित है अनुराग अनंत
जल भर मारी पिचकारी कान्हा,मुख लाय दियो अबीर बसंत
राधा मुख दीप्ती चमक रही,ज्यूँ प्रथम रश्मी हो भानु की
दोनों की प्रीत से खिल सी गई,प्रकृति विस्तृत झंकृत जीवंत
आकुल-व्याकुल गोपी सारी ज्यूँ शेष रहा न देह में तंत
यूँ तड़पत ज्यूँ मीन तड़प रही बीच किसी सरिता ज्वलंत
संवाद हुआ उन्माद बढ़ा,हुई आतुर सांवरे दर्शन को
कर श्रृंगार हैं बाट वो जोह रही,अब आएँगे प्रिय प्राणवंत
नीलम शर्मा