मुक्तक
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बार बार मुख अपना धोते
दर्पण देखें फिर वो रोते
भूल हुई है जो सदियों में
बारी बारी सबसे कहते।।
संतानों का दोष नहीं है
यूं ही तो संतोष नहीं है
कुछ करनी तो अपनी होगी
तभी यहां जय घोष नहीं है ।।
दिन के सपने अपने रहते
दिल से अपने सब कुछ कहते
दौड़ो, भागो, नापो दुनिया
तब तारे अंबर में सजते।।
कैसे भूलें उन भूलों को
कैसे भूलें उन शूलों को
बिंधी पड़ी हैं सदियां सारी
तुमने रौंदा जब फूलों को।।
सूर्यकांत