मुक्तक
चली रे, चली रे, चली रे, चली, मगन मन पिया की डगर पे चली।
पिया से मिलन आज हो कर रहे,
न आवागमन का अहो डर रहे।
****
जो छुपाई बात थी वह कह गए,
की बगावत आंसुओं ने बह गए।
भींच कर रखते, अधर भी जोर से,
डर रहे थे हम हृदय के शोर से।
****
आ गये फिर वृक्ष पर पल्लव नये,
पीत थे जो पात वो तरु से गये।
फिर मदन ऋतु झूम देखो आ गई
गीत सुंदर कोकिला वह गा गई।
इंदु पाराशर