मुक्तक
यहांँ की हर परिस्थिति में हमें ढ़लना ही है साथी।
कड़कती धूप हो फिर भी हमें जलना ही है साथी।
यही कर्त्तव्य अपना है नहीं इससे विमुख होना,
कुहासा है घना बेशक हमें चलना ही है साथी।
कभी जाड़ा कभी गर्मी, कभी बरसात के दिन हैं।
कभी होली दशहरा ईद की मुलाकात के दिन हैं।
नहीं रुकने कभी देते हैं हम यह रेल का पहिया,
भले विजली कड़कती हो या फिर हिमपात के दिन हैं।
वो हिंदू है, वो मुस्लिम है, यही करते रहो पागल।
कहो अल्ल्लाह, जय श्रीराम बस लड़ते रहो पागल।
जहर मीठा है मजहब का, तुम्हें जीने नहीं देगा,
तिलक-टोपी हरा-भगवा में तुम मरते रहो पागल।
जाति धर्म का जहर पिलाकर, मानवता का खून करो।
बहनों का सिंदूर उजाड़ो, माँ की गोदी सून करो।
समर चुनावी सजा हुआ है, ‘सूर्य’ वोट पर ध्यान रहे-
ज़ख्मों वाले मरहम को, चाहो तो खारा नून करो।