मुक्तक
जब खामोशी से आप सब कुछ स्वीकारतें हैं
मतलब आप अपने ही वजूद को दुत्कारतें हैं ।
जिसे आपने बड़े प्यार से पाला था आस्तीन में
ये वही साँप है जो आजकल फुफकारतें हैं ।
-अजय प्रसाद
मुलभुत ढांचे में ऐसा बदलाव हो
सर्दियों में सबके लिए अलाव हो।
इस कदर इन्तज़ाम कर या खुदा
कभी किसी को न कोई अभाव हो
-अजय प्रसाद
चलिए ले चलें सभ्यता-संस्कृति से दूर
देखतें हैं आज वेब सीरीज़ मिर्ज़ापुर।
बेहतरीन हैं अदाकार और अदाकारी
गालियाँ सुनने को भी हैं करतें मजबूर ।
-अजय प्रसाद
आजकल बच्चे जब बड़े हो जाते हैं
खुद के ही खिलाफ खड़े हो जाते हैं।
भुला देते हैं कुर्बानियां वो माँ बाप के
जब अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं ।
-अजय प्रसाद
कबूल मेरी ये दुआ हो जाए
इंसानियत भी वबा हो जाए ।
बरपाये कहर कायनात पर
इन्सानो का भला हो जाए ।
-अजय प्रसाद
सहूलियत के हिसाब से समाचार दिखातें हैं
क्योंकि उसी कमाई से घर परिवार चलाते हैं ।
फ़ायदा चाहिए चैनेल को हर हाल में बस
इसलिए मौके के मुताबिक मुद्दों को उठाते हैं ।
***
खुद की ही बुराई आप क्यों नहीं करते
एक साथ पुण्य औ पाप क्यों नहीं करते ।
नुक्स निकालतें हैं दूसरों की बहुत जल्द
खुद की भी सफाई आप क्यों नहीं करते ।
-अजय प्रसाद
अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं
अवाम पे वो गुस्सा अपना उतार रहे हैं ।
लगता है उनकी नज़रों में गड़ गया हूँ मैं
आजकल जता मुझसे बहुत प्यार रहें हैं ।
-अजय प्रसाद
छुरियाँ दोस्तों उनके दिलों पर ही चलती है
मेरी मौजूदगी महफिल में जिनको खलती है ।
बेअदबी मेरी उनको बिल्कुल बर्दाश्त नहीं
तारीफ़ कोई भी करे जुबां उनकी जलती है ।
-अजय प्रसाद
यहाँ कोई किसी का हमेशा-हमेशा नहीं होता
सियासत में कोई अपना पराया नहीं होता ।
सहूलियत देख कर साथ देतें हैं एक दूजे का
कोई दोस्ती,दुश्मनी या भाईचारा नहीं होता ।
****
क्यों न बहती गंगा में हाथ धो लूँ मैं
थोड़ी सी घड़ियालि रोना रो लूँ मैं ।
कहीं मौका मुकर न जाए मुझसे
कुछ देर खुद के साथ भी हो लूँ मैं।
-अजय प्रसाद
ज़िंदगी से उबरना चाहता हूँ
या खुदा अब मैं मरना चाहता हूँ ।
घुटन होने लगी है शराफत में
ज़रा सा मैं बिगड़ना चाहता हूँ।
-अजय प्रसाद
दायरे में वो अपने सिमट गया
ज़िंदगी औ मौत से निपट गया ।
उम्रभर न ढँक सका जो तन को
कफ़न से आज वही लिपट गया ।
लाश में भी थी लज़्ज़त गज़ब की
देखकेआंखोँ से आसूँ रपट गया ।
-अजय प्रसाद
टकराने का अंज़ाम बस लहरों से पूछो
मुस्कुराने का अंज़ाम इन अधरों से पुछो।
गुजारी है जिन्होंने तमाम उम्र सन्नाटे में
किस कदर है गुजरी जरा बहरों से पूछो ।
थे कभी खुशहाल जो गाँव की शक्ल में
हैं कितने आज बेचैन उन शहरों से पूछो।
-अजय प्रसाद
जी मिलिये हमारे पड़ोसी से,रहते हैं बगल मे
अक़सर हम मिलतें रहते है फ़ेसबुक पटल पे।
वहीं दुआ सलाम कर लेते हैं घनिष्टता के साथ
हम वक्त जाया नहीं करतें साथ-साथ टहल के
जब हर मौके के वास्ते है इमोजी वहाँ मौजुद
तो क्यों फ़िर तकलीफ करें हम गले मिल के ।
-अजय प्रसाद
सवाल दर सवाल मगर जवाब सिफ़र है
जो आने वाला था वो इन्क़लाब किधर है।
तू तो कहता था कि सब महफ़ूज है यहाँ पे
मगर यहाँ ऐसा कौन है जो मौत से निडर है
-अजय प्रसाद
उगे हैं सहित्यिक मंच कुकुरमुत्ते जैसे
बिल्कुल अनगिनत पेड़ों के पत्ते जैसे ।
हर कोई कर रहा है सेवा साहित्य की
मधुमक्खियाँ करतीं मधु के छत्ते जैसे ।
-अजय प्रसाद
आधे अधूरे मन से काम मत करना
मदारी के जमूरे से काम मत करना ।
तुम्हें अपना न सके जो हर हालत में
ज़िंदगी कभी उसके नाम मत करना
-अजय प्रसाद
एक दूसरे की गल्तियां गिनाने लगे हैं
मतलब कुर्सियां अपनी बचाने लगे हैं ।
अब कौन कितना गिरा हुआ है यहाँ
बस यही सियासतदां बताने लगे हैं ।
-अजय प्रसाद
मुझे अनरगल उटपटांग कुछ कहना है
चैनलों के सुर्खियों में बने जो रहना है ।
इतनी सस्ती पब्लिशिटी छोड़ दूँ कैसे
आखिर कीमती किफायत भी करना है
-अजय प्रसाद
आंखों में सब मंज़र चुभते हैं
हालात के ये खंजर चुभते हैं ।
लाख खो जाऊँ मैं रंगीनियों में
खोखले से ये समंदर चुभते हैं।
-अजय प्रसाद
आगई है आज अक्ल ठिकाने प्रकाशकों की
जो चाटुकारिता में निपुण थे शाहकारों की ।
तकनीक ने दिया है इनको वो तगड़ा झटका
भूल गए हैं अपनी अकड़ पिछ्ले दशकों की ।
-अजय प्रसाद
इन्सान / खुदा
हमारी भी कुछ हैसियत है क्या
अच्छा! तो हमें क्यों नहीं पता ।
सदियाँ गुजर गयी समझने में
मालिक कौन? इन्सान या खुदा ।
-अजय प्रसाद
सहरा में हूँ नागफनी की तरह
दोस्ती में हूँ दुश्मनी की तरह।
हैसियत की तू हकीकत न पूछ
खुद घर में हूँ अलगनी की तरह।
-अजय प्रसाद
बहस और विवाद ज़रूरी है
हर्ष और विषाद ज़रूरी है।
ताकी खड़ा रहे ज़्म्हुरियत
जनतंत्र की बुनियाद ज़रूरी है ।
-अजय प्रसाद
जैसा हूँ वैसा ही मंजूर कर
वरना अपने आप से दूर कर ।
रहने दे मुझको तू मेरी तरह
तेरी तरहा यूँ मत मजबूर कर ।
-अजय प्रसाद
हम होंगे कामयाब एक दिन
ज़र्रे से आफताब एक दिन ।
जो आज कह रहे हैं नक्कारा
कहेंगे वही नायाब एक दिन ।
-अजय प्रसाद
मुझे वरगलाने की बात करता है
कहीं दिल लगाने की बात करता है ।
लोग यहाँ कितना किफायत करतें हैं
और ‘वो’ सब लूटाने की बात करता है ।
-अजय प्रसाद
शक़्ल में फूलों के खार मिलें
दुश्मनी निभाने को यार मिलें ।
ठोकरों ने है संभाला अक्सर
सबक मुझको हर बार मिलें ।
-अजय प्रसाद
एक दिन गुमनाम ही जहां से गुजर जाऊँगा
ज़िंदगी तेरी नज़रों से जब मैं उतर जाऊँगा ।
कुछ लोग आएंगे मेरी मैयत पे आसूँ बहाने
ओढ़ कफ़न अपने-वजूद से मुकर जाऊँगा ।
-अजय प्रसाद
वादे से मुकरना दुनिया ने सिखाया
आगे से गुजरना दुनिया ने सिखाया ।
कब,कँहा,किससे, कितना और कैसे
मुझे है उबरना दुनिया ने सिखाया ।
-अजय प्रसाद
लिए कांधे पर खुद की लाश ज़िंदा हूँ
ज़िंदगी,मैं तेरी रुसवाई पे शर्मिन्दा हूँ ।
जो कभी किसी का एक जैसा न रहा
उसी वक्त के हाथों पीटा गया कारिंदा हूँ ।
-अजय प्रसाद
अपनी शर्तों पे जिया है और कुछ नहीं
मुझ पे रहमते खुदा है और कुछ नहीं ।
जिंदगी भर बस मुसलसल जद्दोजहद
आंधियों में एक दिया है और कुछ नहीं ।
-अजय प्रसाद
दौलत,शोहरत,तोहफे,तमगे न पुरस्कार चाहिए
बस आप के दिलों में खुद के लिए प्यार चाहिए ।
जो मिले,जब मिले और जैसे जिस हाल में मिले
नज़रों में आदर, अपनापन और सत्कार चाहिए ।
-अजय प्रसाद
उसकी नफरतों से निखर गया
इश्क़ में मैं इस कदर गया ।
मेरी बद हवासी का आलम न पूछ
तवाही की तरफ़ ,खुश हो कर गया ।
-अजय प्रसाद
अपने हिस्से की हम दुनिया दारी रखें
कुछ तो अपने अंदर भी इमानदारी रखें ।
कोसना सरकार को हमेशा ठिक नहीं
जितनी हो सके उतनी ज़िम्मेदारी रखें ।
अगर करतें हैं उम्मीद दूसरों से वफ़ा की
तो उनके लिए भी दिल में वफादारी रखें ।
-अजय प्रसाद
शहर दर शहर है अन्दोलनों का कहर
किसे फ़िक्र,अवाम है परेशां किस कदर ।
तोड़फोड़,आगजनी और हिंसक प्रदर्शन
कौन फैला रहा है ये अशान्ति का ज़हर ।
-अजय प्रसाद
किस कदर आज है मजबूर आदमी
अपनों से भी हो गया है दूर आदमी ।
किसकी खता थी कौन भुगत रहा है
सोंचता है बैठ कर बेकसूर आदमी ।
-अजय प्रसाद
संयम कम और आकांक्षाएँ अपरीमित
लालसाएं असंख्य और साधन सीमित ।
अनियंत्रित जीवन की अनंत प्रतिस्पर्धा
अनवरत संघर्ष है दिनचर्या अनियमित ।
-अजय प्रसाद
वादे से मुकरना दुनिया ने सिखाया
आगे से गुजरना दुनिया ने सिखाया ।
कब,कँहा,किससे, कितना और कैसे
मुझे है उबरना दुनिया ने सिखाया ।
-अजय प्रसाद
तोहमत एक दूजे पे लगाते रहें हैं
धंधा सियासत का चलाते रहें हैं ।
फ़िक्र है अवाम की उन्हें बेहद
खोखले आश्वासन दिलाते रहे हैं
कहीं पत्थर दिल न कोई समझे
घड़ियाली आसूँ वो बहाते रहें हैं
-अजय प्रसाद
होश में आए हैं सब कुछ लूटा कर
पछताए बहुत हम सर पे बिठा कर ।
हमे क्या पता था इस कदर भी होगा
जश्न वो मनाएंगे हमको मिटा कर ।
रास्ते पे थे बैठे हम लगा कर उम्मीदें
बढ़ गए आगे वो ठोकर लगा कर ।
-अजय प्रसाद
अन्धों की बस्ती में आईने बेच रहा हूँ
धूप में बैठकर मैं छाँव सेंक रहा हूँ ।
हाँ ,है तो बेहद मुशिकल काम दोस्तों
पानी में चंद लकीरें मैं खैंच रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद
आदमी आदमी से भीख मांगता है
जबकी नियत अच्छे से जानता है ।
*****
मशहूर होने की जो चाहत है
हर एक शख्स इससे आहत है ।
भला हो ये सोशल मीडिया का
हरकोई अब ‘कुमार’या’राहत’है ।
-अजय प्रसाद
मंदिर, मस्जिद, पूजा और नमाज़ की बात
क्यों नहीं करते हैं अच्छे समाज की बात।
“मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ”
तो फ़िर क्यों मानते हैं हम रिवाज़ की बात ।
मुल्क का है अदम से ही मुश्किलों से वास्ता
पता नहीं कब करेंगे हम यां स्वराज की बात ।
-अजय प्रसाद
भयंकर तबाही की जद में है
आजकल आदमी बेहद में है ।
इजाद कर लिये हैं कई नुस्खे
खुश वो अपने खुशामद में है ।
-अजय प्रसाद
आंखों में सब मंज़र चुभते हैं
हालात के ये खंजर चुभते हैं ।
लाख खो जाऊँ मैं रंगीनियों में
खोखले से ये समंदर चुभते हैं।
-अजय प्रसाद
तरस रही हैं तरक्कीयाँ कई गांवों में जाने को
कोई मददगार ही नहीं उन्हें रास्ता दिखाने को ।
वक्त के साथ-साथ बदल गई है रहनूमाई भी
अब तो सियासत करते हैं लोग सितम ढाने को ।
-अजय प्रसाद
हैसियत क्या हो गई है रिसालों की ,न पूछ
हालत आजकल के लिखनेवालों की,न पूछ ।
कल तक जो ज़ुल्म ढाते रहे सम्पादक बनके
हश्र क्या हुआ है आज,उन सालों की न पूछ ।
-अजय प्रसाद
प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है पराधीनता
छिन लेंतें है जब एक दूसरे की स्वधीनता ।
और हो जाता है पतन उस दिन प्यार का
भूल जाते हैं जिस दिन दोनो ही शालीनता ।
-अजय प्रसाद
महत्वाकांक्षाओं के आगोश में है
अभी तो वो जवानी के जोश में है ।
जाने कब लेगा सबक कहानी का
वो राज जो कछुए-खरगोश में है ।
-अजय प्रसाद
सियासी उठा पटक जारी है
जनता इसके लिए आभारी हैं ।
जरुर कुछ बेहतर होने वाला है
क्योंकि मामला अब सरकारी है
-अजय प्रसाद
आशिक़ी से मुझे कोई नफ़रत नहीं है
हाँ ज़िस्मानी प्यार की ज़रूरत नहीं है ।
रूह अगर हो रज़ामंद तो पास आना
वरना दिल अपना कहीं और लगाना ।
-अजय प्रसाद
ज़िंदगी तेरी नज़रों से जब उतर जाऊँगा
ज़िंदा सिर्फ़ तस्वीरों में मैं नज़र आऊँगा ।
अब तो आइने भी हम पर तरस खाते हैं
भला किस मुँह मैं खुदा के घर जाऊँगा।
-अजय प्रसाद
मेरी रचना मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित है
क्योंकि अबतक मेरे पास स्वस्थ और सुरक्षित है।
कई बार खेद सहित वापस आई तो है फ़िर भी
मुझे लगता कि अभी उचित पाठकों से वंचित है ।
-अजय प्रसाद
चमचागीरी में वो आज चरम सीमा पे है
तरक्की उसकी डिपेंड उसके नेता पे है ।
कब,कहाँ और कैसे है लगाना मक्खन
आजकल ये सारी चीजें उसके जबां पे है ।
-अजय प्रसाद
खुद के अन्दर , ज़मीर ज़िंदा रख
भले हो दिल से,अमीर ज़िंदा रख ।
ठीक है तू होगा दौलत मंद मगर
ज़ेहन में एक फ़कीर ज़िंदा रख ।
नामुमकिन है कि मासूमियत लौटे
खुद में बचपन शरीर ज़िंदा रख ।
-अजय प्रसाद
ठोकरें हम को शाबाशी लगतीं हैं
गालियां भी सबकी दुआ सी लगतीं हैं ।
ठान लेता हूँ जब जोखिम उठाने की
मुश्किलें भी तब ज़रा सी लगतीं हैं ।
-अजय प्रसाद
उसकी नफरतों से निखर गया
इश्क़ में मैं इस कदर गया ।
मेरी बद हवासी का आलम न पूछ
तवाही की तरफ़ ,खुश हो कर गया ।
-अजय प्रसाद
सहरा में हूँ नागफनी की तरह
दोस्ती में हूँ दुश्मनी की तरह।
हैसियत की तू हकीकत न पूछ
खुद घर में हूँ अलगनी की तरह।
-अजय प्रसाद
रोज़ खुद को आजमाता हूँ
खफ़ा हो के भी मुस्कुराता हूँ ।
मौत महफ़ूज है ज़िंदगी तले
खुद को ही यकीं दिलाता हूँ ।
-अजय प्रसाद
तोहमत एक दूजे पे लगाते रहें हैं
धंधा सियासत का चलाते रहें हैं ।
फ़िक्र है अवाम की उन्हें बेहद
खोखले आश्वासन दिलाते रहे हैं
कहीं पत्थर दिल न कोई समझे
घड़ियाली आसूँ वो बहाते रहें हैं
-अजय प्रसाद
औकात आदमी की आदमी से पूछ
हालात आदमी की आदमी से पूछ ।
है किस कदर परेशां वो खुद से ही
ज़ज्बात आदमी की आदमी से पूछ ।
आदमी ने दिये क्या क्या आदमी को
सौगात आदमी की आदमी से पूछ ।
-अजय प्रसाद
चैनलों
पर चमचे
कुत्ते की तरह
एक दूसरे पे
भौंक रहें हैं
और आग में घी
बखूबी
झौंक रहें हैं ।
उन्हें फ़िक्र है आज
अवाम के
जानो माल की
जो वर्षों से उनके आँखों
मे धूल झौंक रहें हैं ।
-अजय प्रसाद