मुक्तक
स्वाभिमान की चाह में
जी रहा मानव
अपमान के दलदल में
डूबा जा रहा है
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किया मानसिकता को विकृत
युवा ऊर्जा का
सत्यानाश हो रहा है
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ढूँढ़ते राहें , सफल हों
क्षण भर में
कहीं पर लूट , कहीं खसोट
चहुँ ओर अपराधों का मंज़र हो रहा है