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4 Dec 2020 · 1 min read

मुक्तक

रातों के दलदल में न जाने कब मेरे नींद धंस गए
हम जागते में भी तेरे ख़्वाबों के जंगल में फंसे गए

जाने किस किस से कब तलक झूठ बोलेंगे हम
होठों पे हॅंसी नयनों में मेरे क्यूॅं कर पानी बस गए

ये बात जड़ा अजीब है पर सच कहती हूं मैं
लगता है जैसे जिस्म में मेरे तेरे खुशबू बस गए
~ सिद्धार्थ

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