मुक्तक
हम अभी ठहरे हुए हैं झील के पानी जैसे
साहिल से लड़ कर एक दिन नदी होंगे हम देखना
~
उसके दिए चोट को कच्ची माटी पे
कुम्हार के हाथों की थाप कहूंगी मैं
~ सिद्धार्थ
~ कितने दिल टांके थे हमने तेरे नाम के
हम खुद छूटे रह गए उन में अनाम से
~ सिद्धार्थ