मुक्तक
१.
ज़िस्म की गली में जिंदगी का सूरज ढल भी जाय
शब्दों के आंगन से बिछोड़ा किस तरह हो पाय ।
मिट जाते हैं बारहा हर नक़्श कदम के
शब्दों के तो घाव अंग लगे ही रह जाय।
…सिद्धार्थ
२.
‘औरत’
देह की देहरी पे जिसका कभी भी सत्कार नही होता
घर के ‘लेबर चौक’ पे वो कभी बेरोजगार नही होती !
…सिद्धार्थ
३.
ज़िस्म का ज़ीस्त पश्चिम में ढल भी जाय
शब्दों से तो ‘मेरी जां’ बिछोड़ा न हो पाय !
…सिद्धार्थ
४.
कितने रावण मार लिए हम ने, एक राम मगर ढूंढे न मिला
कितनी सीता जंगल में छली गई, एक मगर बाल्मीकि न मिला।
…सिद्धार्थ