मुक्तक !
मेरा बचपन मेरे दामन को छोड़ती ही नही
जब भी छुड़ाती हूँ और जोर से लिपट जाती है !
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हमें अपने घऱ-आंगन गए जमाने हो गए
माँ के हाँथ से खाना खाए और डांट पिए
बातें जो सुहाने थे अब वो पूराने हो गए !
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फूलों का हँसना-रोना देखा है, तितलियों का रंग बदलना देखा है
अपने बचपन में माँ को ‘काली माँ’ होते और खुद को डरते देखा है !
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।।सिद्धार्थ।।