मुक्तक !
खुले पिंजड़े में बैठी चिड़िया से कोई पूछो
पर होने पे भी परवाज़ क्यूँ नहीं करती।
घर की देहरी पे बैठी औरत से भी पूछो
आंगन से ख़ुद को आज़ाद क्यूँ नहीं करती
दिल का बंधन है जो घसीट लता है उसे
उड़ने खुलने को वो अक्सर तैयार नहीं होती !
(सिद्धार्थ)