मुक्तक
“अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है,
रिश्वतों का ही बोलबाला आम है,
आस की मद्धम-सी लौ जलती है जो
उससे ही तो रौशन हमारी शाम है “
“अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है,
रिश्वतों का ही बोलबाला आम है,
आस की मद्धम-सी लौ जलती है जो
उससे ही तो रौशन हमारी शाम है “