दो मुक्तक-जंग को जीत लूं
212 212 212 212
जंग को जीत लूँ इस वतन के लिए।
अंत आतंक का कर अमन के लिए।
लौट घर आयेंगे एक दिन हम सनम,
साथ में जो लिए उस वचन के लिए।
अब सनम के सभी झूठ किरदार हैं।
क्योंकि उनके हुए सब तलबगार हैं।
प्रेम की डोर खुद तोड़ दें ये मगर,
बेवफा हम हुए वो वफादार हैं।
अदम्य