मुक्तक…छंद पद्मावती
१- तुमसे ये जीवन…
मन की सब बातें, रस-बरसातें, रात-दिवस हम करते थे।
सुख-दुख भी आकर, बनते चाकर, कंटक मग के हरते थे।
तुमसे ये जीवन, जैसे उपवन, हरा-भरा नित रहता था।
पग-पग हरियाली, मने दिवाली, झरना सुख का बहता था।
२- बन रे मन सावन…
बन रे मन सावन, जग का आँगन, सुखमय रसमय कर दे रे।
पथ बने सुकोमल, खिलें कमल-दल, बेजा तिनके हर ले रे।
बन सरल विमल मन, जैसे दरपन, जग तुझमें खुद को देखे।
आया दुख हरने, भव-सर तरने, रच सत्कर्मों के लेखे।
३- जीवन है तीखा…
जीवन है तीखा, मिर्च सरीखा, स्वाद निराला चख ले रे।
जिनसे मन मिलता, जीवन खिलता, साथ उन्हीं का रख ले रे।
तन-मन कर अर्पण, प्यार समर्पण, सुख मिलता है देने में।
साथी ये सच्चा, दे ना गच्चा, नौका जग की खेने में।
© सीमा अग्रवाल,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)