*मुकम्मल तब्दीलियाँ *
डा o अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
बदलते परिवेश हैं हरपल
हरपल बद्लती जिन्दगानी है
ये अकेले मेरी ही नही मितबा
ये हम सब की सच्ची कहानी है
अभी पैदा हुआ कोई
अभी बचपन तो आया है
अभी खेलेंगे खायेंगे
गुजरते साल दिन प्रतिदिन
गुजर ऐसे ही जायेंगे
क्यों तुम भूल जाते हो
न ही किसी ने बतानी है
धरा ये कर्म से उपजी
महज कर्मों की बानी है
कोई पल ऐसा भी आयेगा
जो तुझको रुलायेगा
किए कर्मो के प्रतिफल
उसी पल में दिलायेगा
नहीं तुम भूल जाना पर
न ये हरकत सुहानी है
धरा ये कर्म से उपजी
महज कर्मों की बानी है
मुझे बस कुछ नही कहना
न कोई ताकीद करनी है
तजुर्बा जो हुआ मुझको
बस उतनी ही तो सुनानी है