मुकद्दर यूं बनाया है
ग़ज़ल —
बहर-1222 1222 1222 1222
(1222*4)चार मुफाईलुन (बहर-हज़ज)
हमारी प्यास को दो बूंद पानी ने सताया है।
तलब ने फिर लबों तक ये समंदर ही बुलाया है।।
नजूमी ने कहा था ये नहीं तेरी लकीरों में।
है पहलू में सभी मेरे मुकद्दर यूं बनाया है।।
जो मुश्किल तोड़ती थी कांच के जैसा कभी मुझको।
बिख़रती है वो टकराकर जिग़र पत्थर बनाया है।।
हवाएं भी मुख़ालिफ थी रवानी में भी थी मौजें।
मगर लड़कर सफ़ीने को किनारे से लगाया है।।
हराया नफ़रतों को प्यार की बाज़ी लगाकर के।
बने दिलवर सभी जिन ने कभी ख़ंजर चुभाया है।।
गुज़ारी ज़िदगी हमने “अनीश” उन स्याह रातों में।
ख़ुदा का शुक्र है पुरनूर मंज़र भी दिखाया है।।
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तलव=प्यास। नजूमी=ज्योतिषी।स्याह =काली।
पुरनूर=उजालों से भरा। मंज़र=दृश्य।