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1 Jul 2021 · 5 min read

मुआवज़ा (उत्तराखंड 2013 की सत्य घटनाओं से प्रेरित)

दो बूढ़ी सूखी आँखे उस चेक को एकटक देखे जा रहीं थीं, जो अपने जीवन का सर्वस्व खोने की एवज में बतौर मुआवज़ा सरकार की तरफ से उसे दिया गया था। बूढ़ी सुखिया के लिए यह धन उसकी कल्पना से बहुत अधिक तो था, किन्तु अब उस धन के प्रति किसी भी प्रकार की रुचि उसके हृदय में न थी।

अपने जीवन के साठ से ज्यादा वसंत देख चुकी सुखिया एक महीने पहले तक अपने बहू-बेटों और पोते-पोतियों के साथ उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रा में बसे एक छोटे से पहाड़ी गाँव में रहती थी। उसका पति दस-बारह साल पहले सुखिया को अपना सारा उत्तरदायित्व सौंप कर इस दुनिया से जा चुका था। जीते जी उसने बड़ी बेटी की शादी कर उसे उसके असली घर भेज दिया था। और बेटे का ब्याह कर एक बहू भी घर ले आया था। एक बेटे और एक बेटी की शादी सुखिया ने पाँच साल पहले अपने खेत गिरवी रख कर की थी। अब सबसे छोटी बेटी का रिश्ता पक्का किया था। लड़के वाले जल्दी शादी करने का दबाव बना रहे थे। सुखिया को पिछले कई दिनों से यही चिन्ता खाए जा रही थी। बेटे खेतों में काम करके घर का खर्च चलाते थे और सुखिया ने दो गाय पाल रखी थी। इस उम्र में भी सुखिया दोनों गाय के लिए खुद ही चारा कर लेती थी। दूध बिकने से भी घर की आमदनी में थोड़ा सहारा हो जाता था। लेकिन परिवार की कुल आय से सिपर्फ दाल रोटी की ही व्यवस्था हो पाती थी। बेटी की शादी के लिए बहुत धन की आवश्यकता थी। बहुत सोच विचार कर उसने फैसला किया कि वह अपने दामादों से आर्थिक सहायता के लिए कहेगी। अपनी दुविधा को समाप्त करने की योजना के साथ जब सुखिया अपनी बड़ी बेटी के यहाँ जाने के लिए निकली तो उसने सोचा भी नहीं था कि नियती ने उसकी दुविधा समाप्त करने के लिए कुछ और ही उपाय सोच रखा है।

बेटी के यहाँ आए उसे दो दिन हो गए थे और दामाद से सहायता करने का आश्वासन मिलने से थोड़ी खुश सुखिया घर लौटने वाली थी पर उसी दिन बरसात शुरु हो गई और उसे वहीं रुकना पड़ा। ऐसी स्थिति में उसे हमेशा अपने कच्चे घर की चिन्ता सताने लगती थी। अगली सुबह जब अपने ऊपर हुए वज्रपात से अनजान सुखिया घर जाने के लिए निकली तो मन में विचार कर रही थी कि दूसरे दामाद जी भी बस इसी तरह हाँ कर दें तो बिटिया का ब्याह हो जाए। बारिश रह रह कर हो रही थी, मोटर में बैठी वह रास्तों का नजारा देख रही थी। भयंकर बरसात हुई थी, चारों तरफ बस विनाशलीला के दृश्य थे। रास्ते में एक जगह से आगे जाने से मोटर को मना कर दिया गया। मालूम हुआ कि आगे सड़क टूट गई है। हजारों लोग वहाँ जमा थे, कुछ स्थानीय, कुछ बाहर से आए यात्राी, पुलिस, मिलिट्री आदि। लोगों से पूछने पर पता चला कि पहाड़ों में कहीं बादल फटे हैं, भयंकर सैलाब आया है। कई गाँवों के बाढ़ में बह जाने की खबर सुनते ही सुखिया के होश फाख्ता हो गए। मन किया कि अभी उड़ कर अपने बच्चों के पास पँहुच जाए, न जाने किस हाल में होंगे। आगे के सारे रास्ते बन्द होने की वजह से सुखिया को अगले दिन तक उसी जगह पर लगे एक राहत शिविर में रुकना पड़ा। खाने पीने की व्यवस्था तो थी फिर भी किसी अनिष्ट की आशंका से उसे न भूख लगी न प्यास।

अगले दिन वह एक दल के साथ हो ली, जो पहाड़ों के रास्ते पैदल ही आगे जा रहा था। पूरा दिन पैदल चलने के बाद जब वह अपने गाँव के करीब पँहुची तो न उसका घर मिला, न घर वाले, चारों तरपफ बस तबाही के निशान थे। इस सबसे स्तब्ध सुखिया को लोगों ने बताया कि करीब आधे गाँव के साथ उसका घर और परिवार भी नदी की तेज धारा में बह गया। सुखिया का दिल धाड़ धाड़ करने लगा पर आँखों में आँसू न आए, न मुँह से कोई आवाज निकली। आसमान की तरफ सूनी आँखों से देखती वह जमीन पर बैठ गई। मानो विधाता से पूछ रही हो कि- हे विधाता! क्या यही दिन दिखाने के लिए अब तक जिन्दा रखा था? दो बेटे, बहुएँ, एक बेटी, दो पोते, एक पोती, भरा पूरा परिवार बाढ़ की भेंट चढ़ गया तो यह बुढिया इस सब पर रोने के लिए क्यों जिन्दा बच गई। भीड़ लगी थी पर कोई दिलासा देने वाला नहीं था। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति ने इस बाढ़ में अपना कुछ न कुछ खोया ही था। किसी ने घर वाले, किसी ने घर, खेत, खलिहान, मवेशी, कुछ न कुछ जरुर। कौन किस को सहानुभूति दे? हर तरफ से रोने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। गाँव में आई भीषण प्रलय के नजारे देख कर रुह काँप जाती थी। भीड़ धीरे धीरे छँट गई। सुखिया अब भी जमीन पर बैठी थी। गुमसुम, बेसुध, मानो लकवा मार गया हो। कोई ऐसा न बचा था जिसके कन्धे पर सिर सखकर रो सके। सबकुछ लुट चुका था। हँसते खेलते बच्चों की परछाईयाँ रह रह कर उसके स्मृति पटल पर उभर आती थीं। अब जिन्दा रहना भी दूभर लग रहा था। पर शायद कोई जिन्दा बच गया हो, एक उम्मीद की लौ अब भी उसके सीने में जल रही थी। राहत कार्य में लगे सेना के जवानों को हर रोज मलबे में दबे कई कई शव मिल रहे थे लेकिन सुखिया के परिवार का कोई पता न था। एक पखवाड़ा बीत गया, सुखिया के बेटी, दामाद भी इस विपत्ति में साथ निभाने सुखिया के पास आ गए थे। गाँव के और लोगों की तरह वे भी अपने परिजनों को खोजने में लगे रहे लेकिन हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी।

जब आपदा में मारे गए या लापता हुए लोगों के परिजनों को सरकार की तरपफ से आर्थिक सहायता देने की घोषणा हुई तो कोई अधिकारी सुखिया का भी नाम लिख कर ले गया। और आज उस घटना के पूरे एक महीने बाद उसे यह चेक मिला था। अब से एक महीना पहले इस चेक की रकम उसके लिए बहुत मायने रखती थी परन्तु आज उसे यह सिपर्फ एक कागज का टुकड़ा प्रतीत हो रहा था। वाह री किस्मत, जब पैसे की जरुरत थी तब पाई पाई को मोहताज रखा और अब जब इतना धन दिया तो वे लोग ही नहीं हैं जिनके लिए पैसे की जरुरत थी।

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