मुंतज़िर
जिंदगी के इस सफर में मुझे सबने संगे राह समझा,
मुझे ठोकर देखकर गुजरते रहे मैं सब कुछ सहता रहा,
फर्ज़ से मजबूर ,जज़्बातों से मा’ज़ूर मैं कुछ ना कह सका,
खुदगर्ज़ी के इस दौर में अहद -ए-वफ़ा निभाता रहा ,
अपनों की ख़ातिर दिल के अरम़ानों को कुर्ब़ान करता रहा,
हम़दर्दी का मुंतज़िर मैं इस सफ़र में ये आस जगाए बढ़ता रहा ,
कोई हो जो जान सके मुझमें पैव़स्त मेरे दर्दे ए़हसास को,
जो समझ सके मुझ जैसे संगे राह बने पामाल इंसां को ,