“मीरा के प्रेम में विरह वेदना ऐसी थी”
मीरा का अदभुत प्रेम,
अद्भुत विरह वेदना थी,
विकल वेदना चुभ जाती थी,
वो भी वह सह जाती थीं।
नयनों से आसूं ना रुक पाते,
आंखे भी प्रेम का दर्पण दिखलाते,
जब दूध मथनियाँ से मथ लाई,
माखन काढ लियो, छाछ कोई और पिये।
हृदय पुष्प मैं तुझपे चढ़ाऊँ,
सब वारूँ तुझपे,
आजा मोहन सांझ भई,
कब से बाट निहारूं।
वृंदावन,बद्री,द्वारिका डोलू,
तेरी मीरा बनकर,
तेरे चरणों में प्राण धरूँ,
बनकर तेरी निहारिका।
तुम्हे ढूढा था कुंज अटल पर,
पाया था अपने हृदय पटल पर।
मैंने तुझको पाकर श्याम,
जीवन को त्यागा है,
कोई मुझको कुछ भी कहे,
ये तो प्रीत का धागा है।
तुम तो मेरे प्रियतम हो,
मुझको कुछ ना भाता है,
तुम ही मेरे विधाता हो,
तुमसे ही जन्मों का नाता है।
पंक्तिया मै कैसे लिखूं,
लिखी ही ना जाए,
कलम धरत मेरे हाथ कांपत,
और अश्रु गिरत जाय।
जिस धरा पर रखा,
तुमने अपने पद चिन्ह,
उन्ही पद चिन्हो पर,
मिलना हमारा शेष है।
मेरे मन के कोने में,
प्रेम का गुँजन अभी शेष है,
कभी ना अलग हो,
वो बंधन अभी शेष है।
प्रेम से छलकती हुई,
मेरी ये कविता है,
विरह में अनुराग बहती,
ये मेरी कविता है।
विरह में देखो,
अखियां मेरी तरसे,
कब मिलन होगा,
जीवन ना कटेगा हमसे।
समझ ना सके कोई प्रीत को मेरे,
कैसे रहूं मैं श्याम बिन तेरे,
छुपना छुपाना छोड़ दो प्रियतम,
अब हाथ थाम लो आकर मेरे।
पुष्पित वृक्ष तभी होते,
जब सूरज की गर्मी पाते,
प्रेमी भी पूर्ण तभी होते,
जब विरह में तप जाते।
प्रेम में ढूढे जो मतलब,
तो प्रेम कहा होए,
प्रेम अर्थ तो मेरे जैसे,
सुध बुध प्रियतम में खोए।
प्रेम समझने के लिए,
मीरा सा होना पड़ेगा,
कभी अश्रु छुपाना पड़ेगा,
कभी जहर पीना पड़ेगा।
विरह वेदना सह ना पाउँ,
अन्तर्मन से तुम्हे बुलाऊँ,
रूह बिना ये जीवन कैसा,
जल रही हूं, शमशान जैसा।
लग्न ये मीराबाई जैसा,
कान्हा कहा से लाओगे,
टूट गयी जो सासें मेरी,
तब मिलने किससे आओगे।।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव✍🏻
प्रयागराज