मिल गई है शादमानी
रचना नंबर (13)
मिल गई है शादमानी
हर तरफ था घुप अँधेरा
नाशाद मेरी जिंदगानी
बदरंग थी मेरी चदरिया
कोरे काग़ज़ की कहानी
वास्ता तुझसे हुआ जब
हांसिल हुई मंज़िल सुहानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
भटकता राही था मैं
ना कोई मेरी निशानी
बरसता आँखों से पानी
खाली थी मेरी सुरमेदानी
दोस्ती जब से हुई है
तेरे मेरे दरमियानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
थे बहोत हमराज़ मेरे
की नहीं मेरी कद्रदानी
मतलब परस्ती भीड़ में
बात न कोई मेरी मानी
एक ही दस्तक पे मेरी
पेश कर दी मेज़बानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
मैं था कंगला भिखारी
मिला न कोई महादानी
ठोकरे दर-दर की खाई
पर नहीं की बेईमानी
बस तेरा दीदार करके
हो गई मेरी आमदानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
अमावस सी रात काली
पूनम भी लगती वीरानी
तारों की बारात उतरी
पूरी हुई हसरत पुरानी
जमीं पे ज्यों चाँद उतरा
चाँदनी पसरी रूहानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
मेरे दिली अल्फ़ाज़ महके
रंग मिल गया आसमानी
कलम से रिश्ता हुआ जब
माना ख़ुदा की महरबानी
गम भी रुख़्सत हो गए हैं
दुनिया हुई है पानी-पानी
तू मिली जब से मुझे
मिल गई है शादमानी
अब नहीं कोई शिकायत
लेखनी बन गई है आदत
पहचान भी अब मिल गई
क़दर मेरी सच में जानी
भावों के मेरे बवंडर को
मिल गई इक राजधानी
तू मिली जबसे मुझे
मिल गई है शादमानी
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर