मिलन की बरसात
•••●● सार छंद (16-12)में रचित कृति●●••••
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चली बदरिया घिर कर काली, मोर मंद मुस्काते।
लगन लगी है धरा मिलन की, गीत खुशी के गाते।।
बीच राह जब मिलती पुरुवा, कहे पकड़ि के बहिंयाँ।
धरा गगन का मिलन आज है, बैठ कदम की छइयाँ।।
पपीहा कोयल कक्की चहके, रुक जा चंचला रानी।
अम्बर मिलन को चली अदिती, किये चुनरिया धानी।।
छेड़ो मत देखो तुम चपला, अचला हो हरियाली।
प्रतीक मिलन का सतरंगी , नभ से दे खुशहाली।।
रिमझिम सी जब पड़े फुहारें , मस्त चले मतवाली।
झूलों पर पेंग मारे जब , लचके डाली डाली ।।
देख पपीहा मन न समाये, कुहु कुहु कूक लगाए।
अंग अंग फड़के सुनकर तब, मस्त मदन हो जाये।।
इतना बरसे मिल अवनी से, जलद अश्रु कुछ ऐसी।
चहुँ ओर हो जाता जल जल, सफेद चादर जैसी।।
हरी श्वेत धारित्री होकर , सन्देश जग को देती।
सम्पन्नता हो शांति पूर्ण,तभी खुशहाली लाती।।
बदरा आते रहें ऐसे ही , होती रहें बर्सातें।
सब जग खुशहाली में झूमें, गीत मिलन के गाते।।
•••●●●अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.●●••••