मिलन फरवरी का
मिलन फरवरी का
पिरोकर बिखरे मोतियों की उसने माला एक बनाई थी,
कोई कहीं था कोई कहीं थी उसने पहचान बताई थी।
वो कॉलेज के दिन थे अपने वो मस्ती का आलम था,
पहले और दूसरे साल का स्वर्णिम सा अपना दौर था।
उस दौर के साथी अपने तो सादगी की मूरत थे,
नहीं अहम था जरा भी उनमें छल और कपट से दूर थे।
मिलते थे आपस में जब भी नदियां प्रेम की बहती थीं,
एक दूजे की मदद की बातें सदा ही दिल में रहती थीं।
समय का पहिया अपनी गति से बढ़ता रहा चलता रहा,
एक एक कर बिछड़े साथी कोई कहीं गया कोई कहीं।
एक दिन फिर जाने कैसे भगवान को दया आई,
मिलवाया सबको और यादें सारी ताज़ा हो आईं।
माह फरवरी बालाघाट में मित्रों का जमघट जम गया,
कोई कहीं से कोई कहीं से आकर यहां पर रम गया।
वे दो दिन अपने जलसे के पंख लगा काफूर हुए,
समय बिदाई आया जब ले नम आंखे दूर हुए।
दूर हुए आंखों से पर दिल में एक दूजे के आन बसे,
लेकर वादा कहा अलविदा मिलेंगे अगली बार फिर से।
संजय श्रीवास्तव
बालाघाट मध्यप्रदेश