मिलन फरवरी का
मिलन फरवरी का
पिरोकर बिखरे हुए मोतियों की उसने माला एक बनाई थी,
कोई कहीं था कोई कहीं थी उसने पहचान बताई थी।
वो कॉलेज के दिन थे अपने वो मस्ती का आलम था,
प्रथम और द्वितीय वर्ष का वो स्वर्णिम सा अपना दौर था।
उस दौर के साथी तो अपने बस सादगी की जैसे मूरत थे,
नहीं अहम था जरा भी उनमें छल और कपट से दूर थे।
मिलते थे आपस में जब भी नदियां प्रेम की बहती थीं,
एक दूजे की मदद की बातें सदा ही दिल में रहती थीं।
समय का पहिया अपनी गति से बढ़ता रहा चलता रहा,
एक एक कर बिछड़े साथी कोई कहीं गया कोई कहीं रहा।
और फिर एक दिन जाने कहां से भगवान को याद आई,
मिलवाया हमको धीरे से और यादें सारी ताज़ा हो आईं।
माह फरवरी बालाघाट में मित्रों का जमघट जम गया,
कोई कहीं से कोई कहीं से आकर यहां पर रम गया।
वे दो दिन अपने जलसे के जैसे पंख लगा काफूर हुए,
आया समय बिदाई जब ले नम आंखे एक दूजे से दूर हुए।
दूर हुए आंखों से लेकिन दिल में एक दूजे के आन बसे,
लेकर वादा कहा अलविदा मिलेंगे अगली बार फिर से।
संजय श्रीवास्तव “सरल ”
बालाघाट मध्यप्रदेश
26/06/2021