मिर्जा साहिबा
मोहब्बत की दुनिया में साहिबा का नाम विश्वास और धोखे के ताने बाने में उलझा सा प्रतीत हो… तब भी मिर्जा साहिबा का इश्क कहीं भी उन लोगों से कमतर नही माना जा सकता जिन से आज भी मोहब्बत का मयार कायम है…! यह और बात है की मोहब्बत करने वालों को राह में कभी आग के दरिया मिलते हैं तो कभी खून के…! हालांकि अक्सर मोहब्बत करने वाले हर आग में खुद को जला लेने को ही अपना ईमान सम्मान समझते हैं…! इस कसौटी पर खुद को कस कर ही वे लोग इश्क की शमा को सदियों से सदियों तक जलाये रहते हैं….! ये और बात है कि दुनिया उनके मजारों पर उनके नाम के मेले तो लगा सकती है… पर उनके उस अग्निपथ पर चलना तो दूर उसे आज भी अस्पृश्य मानती है….! पर मोहब्बत है कि आज भी इस रास्ते पर एक बार चल पीछे मुड़ना तो दूर देखना भी गुनाह मानती है…!
साहिबा की कहानी मोहब्बत की अजीब कसौटी है…जो पुरुष के अभिमान और स्त्री के आत्मसम्मान की सरहदों को छूती ….गुस्से जिद और चिढ के बचकानेपन से गुजरती…खून के दरिया को लांघती…पश्चाताप के आंसुओं में डूब अंततः मृत्यु की गोद में पनाह पाती है….! सच मोहब्बत करने वालों के जीवन में नियति ने क्या क्या इम्तिहान लिखे हैं…!?! हर बार.. हर कदम.. हर मोड़ पर…तलवार की धार नही तलवार की नोक पर सीधे खड़े रहने की आजमाइश है….कभी कभी तो लगता है कि ये नुकीली नोकें पैर को भेद कर.. दो टुकड़ों में काट कर..साधनारत प्रेमियों को बस अभी उस ऊँचाई से गिरा डालें गी…पर पता नही कैसे…पता नही क्यों…हर बार यही तीखी पैनी नोकें पैर का सहारा बन जाती हैं…गिरने से पहले ही थाम लेती हैं…! पता नही क्यों…पर ऐसा ही होता है….!!!
मिर्जा और साहिबा बचपन के साथी थे…! उनके परिवारों में भी कोई मतभेद नही था…! जात-पात… रुतबे… सामाजिक दृष्टि से दोनों समान थे..! मस्जिद में मौलवी से एक साथ पढ़ते हुए मिर्जा साहिबा ने कभी अलग न होने की कसम खाई थी..! मौलवी को उनके नजदीकियां पसंद नही थी…पर उन दोनों को किसी की परवाह कहाँ थी..! मानव समाज हमेशा से ऐसा ही है…प्रेम को स्वीकार करना इसकी फितरत ही नही है…! मिर्जा साहिबा की मोहब्बत के चर्चे भी आम हो गए..! लोगों की बातों से तंग आ कर मिर्जा ने वो गाँव (झंग) ही छोड़ दिया और अपने गाँव दानाबाद चला आया ! पर साहिबा कहाँ जाती??? दुनिया के तानों और मिर्जा के वियोग का संताप सहती वो वहीँ बनी रही…! माता पिता के सामने तो कुछ न बोलती पर भीतर ही भीतर तड़पती रहती….!
माता पिता ने बदनामी से तंग आ कर साहिबा का विवाह तय कर दिया ! कोई रास्ता न देख कर साहिबा ने मिर्जा को संदेसा भेजा कि उसे आकर ले जाये…! साहिबा की पुकार सुन कर मिर्जा तड़प उठा…और घर परिवार की परवाह किये बिना उसे लेने निकाल पड़ा ! कहते हैं जब वह घर से चला तो हर तरफ बुरे शगुन होने लगे..! पर मिर्जा तो ठान ही चुका था…अब रुकने का तो सवाल ही नही था…!
उधर साहिबा की बारात उसके गाँव पहुँच चुकी थी…! परन्तु साहिबा मिर्जा के आने की खबर सुन कर अपनी सहेली की सहायता से रात के समय उससे मिली ! बारात मुंह ताकती रह गयी…! और साहिबा रात में ही मिर्जा के साथ भाग निकली…! रास्ते में फ़िरोज़ डोगर एक पुराने दुश्मन ने उनका रास्ता रोक लिया, और काफी देर तक उन्हें उलझाये रखा..! आखिर तंग आ कर मिर्जा ने अपनी तलवार निकाली और एक ही वार से उसका सिर उड़ा दिया…!
इस खूनी काण्ड से घबरा कर साहिबा ने मिर्जा से जल्द से जल्द उस स्थान से दूर चलने की सलाह दी…! पर मिर्जा इस अनचाहे युद्ध से थकने से भी ज्यादा चिढ गया था…! अपनी थकान मिटाने के लिए वो एक पेड़ के नीचे सो गया ! साहिबा समझाती रही…जगाती रही…पर अपनी 300 कानी (तीरों) के अभिमान में मिर्जा उसकी हर बात को नज़रअंदाज़ करता रहा…! अपने बाहुबल पर मिर्जा का बेवक्त अभिमान शायद नियति का ही कोई संकेत था..! जब बहुत अनुनय विनय के बाद मिर्जा नही माना तो साहिबा चुप सी हो गयी..!
लोग कहते हैं उसे शायद अपने भाइयों की भावी मृत्यु ने डरा दिया था…! वो दुविधाग्रस्त हो गयी थी ! पर पता नही क्यों मुझे यहाँ साहिबा की उस खतरनाक रात में जल्दी से किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने की जिद में कहीं भी अपने भाइयों के प्रति कोई भावना दिखाई नही पड़ती ! ये उसकी अपने प्यार के लिए चिंता है जिसे वो अब किसी भी खतरे से बचाना चाहती है…! हद है कि जिसके लिए उसने अपने मान सम्मान , अपने परिवार की इज्ज़त और अपने जीवन तक को दांव पर लगा दिया…वही मिर्जा केवल वीरता दिखाने के लिए और 300 तीरों से हर दुश्मन का सीना चीरने के लिए इतना तत्पर है कि वहां बैठ कर उनका इंतज़ार करना चाहता है ! इस आत्माभिमान प्रदर्शन के जनून में वो ये भी भूल गया कि साहिबा से उसका मिलन दुनिया की हर चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है…!?!
क्या युद्ध जरूरी है…जब मोहब्बत सामने हो…??? केवल 300 तीरों और लोहे की तलवार पर टिकी वीरता क्या उस इलाही मोहब्बत से भी बड़ी हो गयी..??? शायद ये शाश्वत प्रश्न साहिबा के आत्मसम्मान को मथ गए होंगे …!
ये मोहब्बत का कौन सा रंग है??? मुझे लगता है साहिबा ने जरूर सोचा होगा…और गुस्से से नही…धोखे के लिए भी नही…बल्कि अपने प्यार के अपमान से दुखी होकर…रो कर….हार कर… उसने उन 300 तीरों को तोड़ मरोड़ दिया होगा…और कमान को पेड़ पर टांग दिया होगा…
फिर तो वही हुआ…जो नियति द्वारा पहले से निश्चित था…! साहिबा के भाई और भावी ससुराल वाले उसे खोजते वहां पहुँच गए…! मिर्जा उठ कर अपना तरकस और कमान ढूँढने लगा…! मृत्यु सामने देख कर उसने तलवार खींच ली…!
मोहब्बत युद्ध नही चाहती …बस जुल्मो-सितम के सामने अपनी आहुति देती चली जाती है…! पर यहाँ मोहब्बत के सामने खून का दरिया लांघने की नौबत आ गयी थी…! कहते हैं…मिर्जा के भाई भी उसकी मदद को वहां पहुँच गए…! पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी…! दुश्मनों ने मिर्जा को पकड़ कर उसे लहू लुहान कर दिया…! उस पर तीरों की बौछार कर दी !
बुरा किया सुन साहिबा मेरा तरकस टांगा जंड (वृक्ष का नाम)
300 कानी(तीर) मिर्जे शेर की देता स्यालों में बाँट
ये वो उलाहना है जिसे साहिबा को देने का समय निश्चित ही मृत्यु ने मिर्जे को नही दिया होगा…! पर उसकी बुझती आँखों में ये उलाहना शायद उस एक पल में ठहर सा गया होगा… ! मिर्जा की मृत्यु से साहिबा टूट गयी ! कहते हैं उसकी दर्दनाक चीखों से आसमान में छेद हो गए…! ज़ाहिर है पछतावे की आग ने उसे धधक धधक कर जलाया होगा…अगर मिर्जे के 300 तीर और कमान उसके पास होते तो संभवतः अपने भाइयों के आने तक वो इस युद्ध को संभाल पाता…! उसकी वीरता पर तो साहिबा को कोई शक था ही नही…पर अनजाने ही वो अपने ही प्यार की मृत्यु का कारण बन गयी…!
कहते हैं…उस लहू के दरिया के मध्य मिर्जा की लाश से लिपट कर रोती – चीखती साहिबा ने भी प्राण त्याग दिए…और पीछे छोड़ गयी…अपमान-अभिमान, जिद-गुस्से,और हठ की अजीब दास्तान….!
मोहब्बत तू मोहब्बत है…तुझ में
दर्द का गहरा पैवंद क्यों है…?
दर्द अगर दर्द है तो…उस में
सुकून का द्वंद क्यों है…?
धंसी है तलवार आर-पार फिर भी…
शर शैया पर तेरी आगोश सा आनंद क्यों है…???
© डॉ प्रिया सूफ़ी