मिथक से ए आई तक
मिथक से ऐ. आइ तक
साक्षी का एडमिशन अमेरिका की स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में हो गया था । उसने कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करी थी और अब उसकी रूचि आरटीफिश्यल इंटेलीजेंस में थी । जाने से पहले वह माँ पापा के साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय घर पर बिताना चाहती थी । इस घर की ख़ुशबू, इस स्नेह को भीतर संजो लेना चाहती थी । जन्म से वह इन दरोदीवारों को पहचानती थी । यहाँ की हर चीज में एक अपनापन था ।
नागपुर के सीताबर्डी में यह उसके पुरखों की ज़मीन थी, कभी उनके पास जंगल हुआ करते थे, पर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात धन संपदा सिकुड़कर इस एक एकड़ के घर तथा कुछ दुकानों तक रह गई थी। दुकानों से अच्छा ख़ासा किराया आ जाता था , इस प्लांट पर दो गेस्ट हाउस थे, जो बहुत बड़ी कंपनियों को किराए पर दिए हुए थे । उनका अपना घर दादाजी ने खुद डिज़ाइन किया था । बड़े बड़े कमरे वरांडे जैसे लगते थे, खिड़कियाँ ही खिड़कियों थी , जैसे कोई चार दीवारी से विद्रोह कर उठा हो , बाहर बड़े बड़े लहलहाते पेड़, गर्मियों में भी जब उनकी पुरवाई साक्षी को छू जाती तो उसे लगता , यह हवा भी कितनी मादक है, वह आँखें बंद करके उसे देर तक महसूसती रहती ।
उसके पिता दादा साहेब ने कभी कुछ विशेष काम नहीं किया था, कभी महाराष्ट्र के लिए बैडमिंटन खेलते थे , बाँसुरी बजाते थे , योगा करते थे , घर के पीछे के पुराने कुऐं में रोज़ तैरते थे । घर में लोगों का आना जाना, गैस्ट हाउस में आए लोगों से मिलना, उन्हें इतना प्रसन्न रखता था कि और कुछ करने की आवश्यकता उन्होंने कभी अनुभव ही नहीं की ।
मां के पास बच्चे घर में संगीत सीखने आते थे और वह संगीत जब गूंजता तो लगता मानो दीवारें भी गा उठी हैं । माँ कहती, मेरे पास साक्षी है, रसोई घर है , और संगीत है, मेरा जीवन पूर्ण है ।
“ और पापा ?” साक्षी ने एक दिन पूछा था ।
माँ हंस दी थी ,” दादा का जीवन अपनी तरह से पूरा है , मेरा अपनी तरह से, इसमें कोई विरोधाभास नहीं , यही हमारे पुरखों का आशीर्वाद है , ब्रह्मांड का यह कोना हमारा है । “
आज बहुत वर्षों बाद उसे मां की यह बात याद आ रही थी , और वह बेचैन हो उठी थी । यह सब उसका भी तो था , रिश्तेदार, मित्र, अड़ोसी पड़ोसी , सदियों से रचा बसा माहौल छोड़कर वह किसकी खोज में जा रही थी ?
रात हो चुकी थी वह अपने बिस्तर से पूर्णिमा के चाँद को देख रही थी , यह चाँद भी तो उसके साथ अमेरिका चलेगा, उसने मन में सोचा और उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल उठी ।
सुबह पापा ने आवाज़ दी तो वह रोज़ की तरह उनके साथ दौड़ने के लिए तैयार होने लगी । दौड़ने के बाद योगा हुआ , और माँ के कुछ शिष्य संगीत के लिए आ पहुँचे । आज साक्षी ने भी उनके साथ अभ्यास किया । जाने से पहले शिष्यों ने माँ के पाँव छुए तो साक्षी का मन भी पाँव छूने को हो आया , और न जाने क्यों उसका मन भर आया और उसकी आँखें भीग उठी ।
सब चले गए तो वे तीनों नाश्ते की मेज़ पर आ गए , माँ ने साक्षी की पसंद का हलवा, आलू पूरी बनवाये थे । माँ ने कहा ,
“ आज हम भी यह खा लेते हैं , दो दिन बाद तूं चली जायेगी तो हम अपने लिए तो इतना भारी खाना कभी नहीं बनायेंगे । “
साक्षी ने उत्तर नहीं दिया तो माँ ने उसके हाथ पर हाथ रखकर कहा, “ क्या हुआ , कुछ देर पहले भी तेरी पलकें भीगी थी , अब भी तूं उदास बैठी है। “
साक्षी ने हाथ का कौर नीचे रख दिया , और कहा, “ माँ मैं यहाँ से दूर जाकर कोई गलती तो नहीं कर रही न ?”
“ गलती कैसी ?” पापा ने चम्मच नीचे रखते हुए कहा ।
“ पापा, आपने भी तो इंजीनियरिंग करी थी , ज़िंदगी में जो चाहते कर सकते थे , पर आपने यह ज़िंदगी चुनी और आप दोनों कितने संतुष्ट हैं । “
पापा मुस्करा दिये , “ ले यह हलवा मेरे हाथ से खा ।” उन्होंने चम्मच उसके मुँह में ठूँसते हुए कहा ।
“ और यह ग्रास मेरी तरफ़ से ।” माँ ने आलू पूरी उसके मुँह में ठूँसते हुए कहा ।
अब तो साक्षी का रोना हँसना दोनों एक साथ निकल गया , परन्तु माँ पापा दोनों मुस्करा कर उसे कुछ पल मुग्ध से देखते रहे ।
माँ ने फिर उसके हाथ पर हाथ रखते हुए कहा ,” तूं और तेरे सपने एक ही हैं , वे जहां पूरे हों , वहीं जा ।”
“ फिर आप लोग क्यों नहीं गए ?”
“ वह इसलिए बेटा , क्योंकि हमारा सपना यहीं था ,” पापा ने भी उसके दूसरे हाथ पर हाथ रखते हुए कहा , “ मनुष्य जाति के पास बहुत सारे सपने हैं , और हर कोई अपने लिए उस ढेर में से अपने लिए एक सपना चुन लेता है, जैसे, प्रसिद्धि की खोज, धन की खोज, प्यार की खोज, भक्ति की खोज, सुंदरता की खोज, ज्ञान की खोज,साहस की खोज , अहम् की खोज, शांति की खोज, और यदि इन सबको मिला दें तो हमारे मिथकों का निर्माण आरंभ होता है, हम किसी न किसी रूप में मनुष्य की उस पहली कृति , यानि मिथकों को भिन्न भिन्न रूप दे रहे हैं, कभी कला में , तो कभी विज्ञान में, कभी युद्ध में तो कभी प्रेम में , और यह आवश्यक नहीं कि , परिवार के सब लोगों का उत्तराधिकार एक ही हो, वह भिन्न हो सकता है, और प्रायः होता है , और हमारा मानना है, इस उत्तराधिकार को समझना और उसे सार्थक दिशा देना ही, मनुष्य जीवन में और समाज में संतोष भरता है । इन सारे सपनों में से एक सपना यह भी है कि हम पारिवारिक सुख को जी सकें, आसपास एक स्थिरता हो, जाना पहचाना माहौल हो , इसलिए ही तो इतने सारे देवी देवता दुनिया भर में बस इसी काम में लगे हैं । “ यह कहकर पापा थोड़ा हंस दिये ।
“और नसीब से यह सब हमारे लिए संभव था , इसलिए हमने उसे चुन लिया ।” माँ ने पापा की बात पूरी करते हुए कहा ।
साक्षी पूरे ध्यान से देनों की बात सुन रही थी , कुछ पल रूक कर माँ ने फिर कहा, “ जो सपना तुमने चुना है, उसकी पूर्ति के लिए यह यात्रा तुम्हारी सहायक होगी ।”
“ वह सपना क्या है ?” साक्षी ने पापा को देखते हुए कहा ।
पापा ने वह चम्मच फिर से नीचे रख दिया और दीवार की तरफ़ देखते हुए अपने ही ख़्यालों में खोये हुए कहा, “ तुम छोटी थी तो तुम्हारी माँ तुम्हें मिथकों की कहानियाँ सुनाती थी, इंद्र की, सूर्य की, अग्नि की, अपोलो , एफरोडाइटी, हेरा , जुपिटर …, फिर उन्होंने साक्षी की तरफ़ मुस्करा कर देखते हुए कहा, “ याद हैं न वे सब ?”
“ जी पापा । “ उसने मुस्करा कर कहा ।
“ तो बेटा , उनके सारे देवता मनुष्य का बेहतर रूप थे ।” माँ ने कहा ।
“ वे हमसे लंबे , अधिक सुंदर, जीवन यापन की चिंता से मुक्त, मृत्यु जन्म की पीड़ा से मुक्त , जहां चाहें पल में पहुँच जाएँ , भूख ,प्यास का भय नहीं , बीमारी नहीं, जिसके चाहें मिटा दें, जिसके चाहें बना दें …..पापा अभी कह ही रहे थे कि साक्षी ने हंसकर कहा ,
“ और आपको लगता है मनुष्य अपनी उसी लालसा को पूरा करता हुआ आज रोबोटिक और ए.आई तक आ पहुँचा है , और मेरे हिस्से में यह लालसा आई है ।”
“ हाँ , बिल्कुल । “ पापा के साथ मम्मी भी हंस दी और फिर तो वहाँ ऐसी खिलखिलाहट की गूंज हुई कि बाहर खड़े माली के काम करते हाथ रूक गए ।
हवाई जहाज़ ने जब अपनी पूरी गति पकड़ ली तो , साक्षी सोच रही थी , उसके माँ पापा ने कितनी आसानी से उसे इस मनुष्य की निरंतर खोज से जोड़ दिया, उसकी अभिलाषा को कैसे जीवन के गहरे अर्थों के साथ जोड़ दिया , उसे ज़मीन के एक टुकड़े से निकाल ज्ञान की लड़ी में पिरो दिया ।
—-शशि महाजन