मित्रों सुनो
मित्र सुनो
मुझ मजलूम परिंदे की दास्तां
ऐसा मंजर कहाँ से लाऊ
जहां की रुत सुहानी हो
दो पल का सुकून पा जाऊं
जो हवा सुहानी हो
तारों भरी रात का नजारा
जहां मौजों की रवानी हो
घुटता है हर पल दम मेरा
जहाँ की हवा विषैली हो
जंगल मिटते चले हैं
दरख़्तों के निशान देखते हो
कर ही क्या सकती हो
ठूंठों पर बैठ कर तुम
आंसू ही बहा सकती हो
जहां ऊंची ऊंची मीनारें हो
वहाँ चैन कैसे तुम पाओगी
जहांँ गाड़ियों के चलते रैले हो
मेरी मानो कहीं दूर चली जाओ
जब दुनिया ही आभासी हो
आईना से कर लो दोस्ती
जब कोई अपना ना हो
मतलब की दुनिया में
जहाँ रिश्ते भी मतलबी हो
इधर उधर भटकती फिरती
क्या अपना घर ढूढ़ती फिरती हो