“मित्रता का मंत्र “
डॉ लक्ष्मण झा”परिमल ”
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नए यंत्रों के युगों में हम पहुँच गए हैं ! पलक झपकते सारी दुनियां हमारे करीब आ जाती है ! जब चाहा, जिन से चाहा मित्रता के बंधनों में बंधते चले गए ! इन यंत्रों ने युगांतकारी परिवेशों की रचना की ! मित्रता के दायरे बढते गए ! अब बेहिचक अपने से श्रेष्ठ ,गुरुओं ,महान विभुतिओं ,मात-पिता ,पुत्र पुत्रियाँ ,पौत पौत्रियां मित्रता के बंधनों में बंधते चले गएँ ! अनगिनत फूलों की श्रृंखला बनती गयी ! हमने उन विविध फूलों से अपने आँगन को सजाया ! पर हमें यह आभास होना ही चाहिए कि इनके मान प्रतिष्ठाओं को हम कभी आहत न होने दें ! हम जब भी कभी अपनी प्रतिक्रिया और टिप्पणियाँ लिखते हैं तो सम्मान ,शिष्टाचार ,मृदुलता और सौम्यता की फुहारों की ही वारिस होनी चाहिए ताकि हमारे विविध फूलों के रंग न मलिन हो जाय और न उनके परिमल ही अपना मुंह फेर लें ! इसका तात्पर्य हमें यह नहीं समझना चाहिए कि हमारी भाषा हमारे समतुल्य मित्रों के साथ भिंन्य हो जाय तो चलेगा ! हमरी यही चाह हमारे ह्रदय में वसी हुई है कि श्रेष्ठों का मार्ग दर्शन हमें मिलता रहे ,मित्रों से सद्भावना बनी रहे और नयी पीढ़ियाँ हमें यदा कदा याद करें !
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डॉ लक्ष्मण झा”परिमल ”
एस .पी .कॉलेज रोड
शिव पहाड़
दुमका
झारखण्ड
भारत