माॅं का संघर्ष
मैंने घर आते ही आवाज दी.. “माॅं..चाचाजी पहुॅंचने वाले हैं, दादी का फोन आया है”
इतना कहकर मैं अपने स्टडी रूम में घुस तो गई, पर मन ही मन माँ की चिंता हो गई.. कितना काम करती हैं, पूरा दिन और आधी रात तक..जबसे पापा पैरालिटिक हुए हैं, माँ उनकी तीन बार मालिश करती हैं..6 फुट के हट्टे-कट्टे पापा.. उफ! मैं फिर पढ़ाई छोड़कर ये सब सोचने लग गई..
क्या करूँ.. मेरा सपना था माँ का नावेल छपवाने का, पर समय ने जैसे उनको चारो तरफ से फँसा रखा था।
कल ही उन्होंने दादी को अपनी शादी वाले कंगन दिये हैं, कि दादी उनको बेचकर राशन- पानी, बिजली का बिल आदि चुका सकें। पापा की नौकरी जाने के कारण परेशानियाँ भी बढ़ गई हैं..
आज माँ थोड़ी सुस्त लग रही थीं, मैंने पूछा भी, पर टाल गईं..मैं भी पढ़ाई में रम गई।
पिछले एक हफ्ते से उनको बाहर जाना पड़ रहा है, बेचारी आते ही, घर के तमाम काम निपटाने लगती हैं।
आज मुझे नीँद नहीं आ रही.. मैं रह-रह कर माँ को सोच रही…जाने क्यों उनका उतरा सा चेहरा… मेरा मन घबरा गया.. मैं माँ के कमरे में पहुँच गई… पर ये क्या.. माँ वहाँ थी ही नहीं.. अरे! माँ कहाँ हैं? मैंने मन ही मन सोचा..
तब-तक मेरी नज़र पापा के कमरे की तरफ पड़ी..
माँ पापा के कमरे में नीचे बैठी कुछ कर रही थीं..
मैं चुपचाप लौट आई..
आज माँ अपनी दवा लेने गई हैं.. मैं चहलकदमी करने लगी..पता नहीं कब आएंगी..भूख जोरों की लगी है.. किचन में पहुँची तो पूरा खाना बना रखा है..
“अरे! एक तरफ तबियत खराब और दूसरी तरफ इतना खाना..” मैं भूखी थी, खाने पर टूट पड़ी।
तभी कोरियर वाला आया..
एक पैकेट देकर चला गया..
माॅं के नाम का कोरियर?
मैंने आव देखा न ताव फटाक से लिफाफा फाड़ा..
अरे! माँ की किताब! एक अनोखी खुशी से मैं पगला गई और माँ के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी।
तभी मामाजी ने घर में प्रवेश किया…
पापा को कुर्सी पर बैठाकर बोले..
“चलो शैलजा ने बुलाया है सबको..”
“माँ ने?”
“पर कहाँ मामा? मैंने अधीरता से पूछा
“चलो फिर बताता हूँ..” मामा ने बहुत प्यार से कहा।
मैं अनमने मन से गाड़ी में बैठ गई.. इण्टर फाइनल में हूॅं मैं, इसी वर्ष इतनी परेशानियां आ रहीं..
गाड़ी रूकी तो माॅं के साथ करीब बारह-तेरह बूढ़ी महिलाओं को देखकर मैं चौक पड़ी..
“माँ..ये सब क्या है?”
माँ ने गंभीरता से कहा..
“तुम्हारे चाचा ने हम सबका ये घर बेच दिया है, पापा की बीमारी के बाद से, हम लोगों के संबंध भी पहले जैसे नहीं रहे। आज हम लोगों को ये घर छोड़ना है, तो मामा की मदद से, मैंने एक सप्ताह की भागदौड़ के बाद ये घर खरीद लिया है..
“और हाॅं बेटा, यहाँ हम सबके साथ ये विधवा माताएं भी रहेंगी!”
“पर माँ..ये सब आपने..”
“हाँ बेटी! मेरी पुस्तक पर मुझे पाँच लाख रूपये का इनाम मिला है,
इसीलिए मैंने सोचा एक परिवार छूटा तो क्या, हम सब इन निराश्रित माताओं को ही अपना परिवार बना लेंगे और इन लोगों को परिवार की कमी महसूस नहीं होने देंगे..”
कहकर माँ ने पापा की तरफ बहुत प्यार से देखा..
पापा की आँखें खुशी से डबडबाईं हुई थीं..
और ..मैंने आगे बढ़कर उनको गले से लगा लिया, मेरी ऑंखों में ऑंसू भर आए! मैं बस यही सोचने लगी कि माँ को इतनी शक्ति आखिर कहाँ से मिली?
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
‘रश्मि लहर’
लखनऊ