*मास्क के चक्कर में होठों की बेकद्री (हास्य-व्यंग्य)*
मास्क के चक्कर में होठों की बेकद्री (हास्य-व्यंग्य)
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मास्क के चक्कर में सबसे ज्यादा बेकद्री होठों की हो रही है । जब से मास्क से ढके हैं, उनकी तरफ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा। पीले पड़े हैं तो ठीक है ,सूखे हैं ,पपड़ी जम रही है ,तब भी एक अनमना-सा भाव होठों के प्रति होने लगा है । कारण यह है कि अब होंठ सार्वजनिक रूप से दिखाई नहीं देते ।
एक जमाना था जब महिलाएं होठों पर लिपस्टिक लगाकर उन्हें सुंदर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहती थीं। समारोह की तो बात ही अलग है ,साधारण तौर पर भी घर से बाहर निकलते समय होठों पर लिपस्टिक लगाना अनिवार्य होता था । जब से मास्क ने होंठों को ढका है ,लिपस्टिक का खर्चा ही बजट से चला गया । न रहे होंठ ,न रही लिपस्टिक ।
मुस्कुराने का दायित्व इतिहास में लंबे समय तक होठों पर ही रहता था । वही हंसते थे ,वही मुस्कुराते थे । होठों का फुरफुराना ,मुख से बुदबुदाना , होंठ भींजना आदि सारी क्रियाएं लुप्त-प्राय होने लगी हैं। बहुत से लोगों के होठों को देखकर यह पता लग जाता था कि वह गुस्से में आने की पूर्व अवस्था में हैं। सामने वाला सावधान हो जाता था । अब वह मौका हाथ से जाता रहा। आदमी गुस्सा होता है और सीधे डंडा उठा कर मारता है।
अगर महामारी के दौर को दर्शाने वाली कोई फिल्म बने तो उसमें नायिका के होंठ देखने के लिए दर्शक तरस जाएंगे और दिखेंगे भी तो फटेहाल ही होंगे । वह जो होठों की तारीफ में कवियों ने कल्पनाओं की उड़ानें भरी हैं ,वह सब धरी की धरी रह जाएंगी। जब नायिका रोटी को सब्जी में डुबोकर मुंह की ओर ले जा रही होगी ,केवल उतने ही दो मिनट के सीन में मास्क-रहित मुख के दर्शन होंगे । देख लो क्या देखना है !
दाँतों के मामले में भी होंठों जैसा ही हाल है । जब आदमी के होंठ दिखें ,तभी तो दाँत के दर्शन होने का अवसर प्राप्त हो सकता है । अब जब मास्क लगा हुआ है ,तो क्या तो पीले दांत और क्या सफेद दांत ! सब एक ही श्रेणी में आ गए । पहले जब किसी के दांतो से बदबू आती थी ,तब वह इस बात से परेशान रहता था कि मैं चार लोगों के पास जाकर उठा – बैठा करूंगा ,तब लोग मुझसे दूरी बनाकर न रहने लगें। अब मास्कमय – समाज होने से दूरी अपने आप छह फिट की हो गई । दाँत कितनी भी बदबू फेंकें ,वह मास्क से निकलकर छह फीट दूर तक व्यक्ति को प्रभावित नहीं कर पाएगी। आदमी मजे में दुर्गंधमय दाँतो से अपना काम चला लेगा।
होठों के न दिखने से सामाजिक व्यवहार में बहुत-सी मुश्किलें आ रही हैं । बोलने के मामले में होंठ के मास्क से ढके हो जाने के कारण यह समझ में नहीं आता कि व्यक्ति कह क्या रहा है ,कहना क्या चाहता है और शब्द उसके मास्क से बाहर किस रूप में बाहर आ रहे हैं ? कई लोगों की बोली पहले से ही अस्त – व्यस्त चलती रहती थी। उनके सामने तो मास्क पहनने पर महा-संकट आ खड़ा हुआ है । मास्क उतारो तो महामारी सामने आ जाएगी और न उतारो तो कहा हुआ एक शब्द भी किसी के पल्ले नहीं पड़ता ।
ले – देकर आँखें बची हैं । वह देखने के काम में इस्तेमाल की जाएँ या उनसे हँसने – मुस्कुराने ,गुस्सा होने अथवा आभार प्रदर्शित करने का काम भी ले लिया जाए ? मजबूरी में सारा काम आँखों से चलाना पड़ता है । आँखें देखकर ही मनुष्य के भावों को समझने की तकनीक अब धीरे-धीरे विकसित हो रही है । पहले नाक के नथुने फड़फड़ाते थे । अब वह चाहे जितना फड़फड़ाएँ ,लेकिन उनके दर्शन नहीं होंगे । गुस्से के जो बहुत से चिन्ह पहले नजर आते थे ,वे अब मास्क में छुप गए हैं । खुले तौर पर केवल आँखें रह गई हैं । भगवान इनकी तरफ भी बुरी निगाहों से देखने लगा है । कंगाली में आटा गीला होने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है अर्थात एक महामारी से बच नहीं पा रहे हैं कि दूसरी महामारी अट्टहास करती हुई सामने आकर खड़ी हो जा रही है । आँखों का बुरा हाल है । टीवी की खबरें देखकर जब आदमी उठता है ,तो उसकी आँखें पहले से ज्यादा डरी हुई होती हैं।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451