** मालिक की सौगात ***
अल्फ़ाज
नहीं है
ये मेरे
उस मालिक
की शौगात है
ये
मैं तो केवल
इक जरिया हूँ
वो इश्क महोबत
का दरिया है
जर्रा-जर्रा
जिससे रोशन है
उसकी क्या
तारीफ करुं
मैं इस काबिल
कब हो पाया
जो तेरी कुछ
तारीफ करूं
जिस जिस्म
के अंदर
रहती रूह
उस रूह पर
तेरा ही साया
गर इन्सां के
समझमें आ जाये
ये रूह के
रुखसत
होने से पहले
तो जीते जी
तर जाये वो
बिन नाव के
भव दरिया को वो ।।
?मधुप बैरागी