मायज़ाल:ज़िन्दगी का कठोर सच
“तुम्हारी राह कब से देख रही थी।कहां रह गए थे ?आज तुमने आने में देर कर दी।तुम्हें मालूम नही घर पर भी कोई है जो तुम्हारा इंतज़ार करता है,लेकिन तुम्हे फिक्र ही कहां है।तुम तो आजकल अपनी ही धुन में मग्न रहते हो।पता नही किन ख्यालों ने घर बना रखा है तुम्हारे भीतर? बताते भी तो नही पता नही क्या सोचते रहते हो।ये लो खाना खा लो और खाना खा कर थोड़ा आराम कर लेना।
थक गए होंगे तुम।” दीपा ने भोजन परोसते हुए कहा ।”थकना कैसा अब तो इन सबकी आदत सी हो गयी है,अब आराम तो तभी मिलेगा जब इस संसार से विदाई लेनी होगी।”सुनील ने निराशा भरे लहजे में कहा ।”हाय राम ये क्या बोल रहे हो बिल्कुल भी शर्म नही आती ऐसा बोलते हुए।कभी सोचा तुम्हारे बिना मेरा क्या होगा,मेरे तो सोचने भर से प्राण निकल जाते है।लेकिन तुम्हे बोलने पर बिल्कुल भी अफसोस नही होता”।दीपा ने शिकायती अंदाज में कहा।”अफसोस कैसा भला क्या काल को आने से कोई रोक सकता है,जो इस कपटी संसार में आया है उसे आज नही तो कल जाना ही पड़ेगा।मेरे या तुम्हारे सोचने से क्या सच बदल सकता है।”सुनील ने भोजन की थाली उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा।
“अच्छा चलो बताओ क्या हुआ? आज बनी कहीं बात या आज का दिन भी ऐसी ही रहा।” दीपा ने उत्सुकता औऱ आस भरी निगाह से अपने पति की तरफ देखा। उसका इस तरह देखना सुनील को अंदर से तोड़ रहा था। कुछ क्षण सोचकर उसने कहा,
“मैं गया तो कई जगह लेकिन हर जगह से एक ही जवाब मिला कॉल करके बता देंगे,पता नही कब तक ऐसी ही चलता रहेगा।कब भगवान हमारी भी सुनेगा।
दिन प्रतिदिन महँगाई बढ़ती जा रही है,कल तक दो पैसे तो आते ही थे,लेकिन जब से नौकरी छूटी है तब से तो लक्ष्मी के दर्शन ही दुर्लभ हो गए है,ऊपर से कुछ पैसे जो मैंने सम्भाल कर रखे थे वो भी ऐसे उड़ रहे है,जैसे मानो गर्मियों में नदी से पानी सूखता है।” दीपा से अपने पति की ये हालत देखी नही जा रही थी पर वो कर भी क्या सकती थी” फिर भी पति को ढाँढस बंधाते हुए बोली,
“चलो चिंता मत करो कुछ दिनों की बात है,समय के साथ सब सही हो जायेगा।” समय गुज़रता गया लेकिन भेड़ियों के समूह में जाकर नौकरी पाना एक टेडी खीर थी। इतने लोगों के बीच मे जाकर अपनी काबलियत सिद्ध करना भी एक कला ही है,जहां काबिलियत सिद्ध हो जाती वहां तनख्वाह को लेकर बात नही बन पाती थी,कहीं तो हाल इतना बुरा था कि साक्षत्कार मात्र औपचारिकता मात्र थी लेकिन उस पद पर चयन पूर्व निर्धारित होता था।
तंग ज़िन्दगी के साथ साथ समय भी बहुत तेज़ी से व्यतीत हो रहा था।कहा जाता है,न अपनो के रंग तभी साफ नजर आते है जब व्यक्ति के ऊपर कोई समस्या आ पड़ती है।समय गुज़रता गया उसके साथ अपनों का रंग भी उतरता गया,कई दिनों,हफ़्तों,महीनों तक घर में रहने वाले लोग आज इस तरह है सुनील से बच कर निकलते थे जैसे कि उनका कोई दुश्मन हो।
बीतते दिनों के साथ उसकी सारी बचत भी खत्म होने की कगार पर थी।तथा दिन प्रतिदिन घर का क्लेश आम बात हो गयी थी, ऊपर से शहर की आलीशान ज़िन्दगी उसे एक बोझ की माफ़िक महसूस होने लगी थी।जब भी उसे कोई मिलता उनसे मुँह छिपकर बच जाने की सोचता था।
उसके मन में एक तरह की कुंठाएं जन्म ले चुकी थी, कल तक जिन लोगों को अपना समझता था,आज वो सभी उससे बात करना तथा घर आना तक पसंद नही करते थे।
ज़िन्दगी के इस मोड़ पर वह स्वयं को अकेला महसूस करने लगा था,अपनी गलती न होने पर भी स्वयं को कोसता था।
जीवन की इस घटना ने उसे ज़िन्दगी के इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था,जो उसने कभी सपने में भी नही सोचा था।इतनी काबिलियत होने के बावजूद भी वह स्वयं को नकारा,निकम्मा समझने लगा था,उसके भीतर एक नकारात्मक प्रवृति ने जन्म ले लिया था।
इन परिस्थितयों से तंग आकर उसे कोई और रास्ता न सूझा,अंत में इस दुनिया के अनगिनत प्रश्नों से भरी लबालब जीवन यात्रा को समाप्त करने का प्रथम निर्णय ही अंतिम निर्णय सिद्ध हुआ.
भूपेंद्र रावत
27।04।2020