मायूसी से मुस्कान तक-सन् 2013
एक दिन था बहुत मायूसी भरा,
आज फिर बजता एक साज़ है,
ठुकराने चला था उस जीवन को मैं,
जिस जीवन पे मुझको नाज़ है,
उदास वो दिन बना गुज़रा कल,
सामने मेरे आज है,
तमाम अवसरों को समेटे हुए,
जो देता मुझको आवाज़ है,
बेख़ुद था मैं ख़ुद से ही उस दिन,
मान बैठा था ख़ुद को हारा,
मांगता हूँ माफी मैं इस जीवन से,
होगा कभी न ऐसा दुबारा ,
दिन नहीं वो दुर्दिन था,
जब अपना ही साथ छोड़ दिया था मैने,
बुद्धि नहीं वो कुबुद्धि थी,
जब अपने ही विश्वास को तोड़ दिया था मैने,
निराशा रंजित वो दिन था कैसा,
ख़ुद को रहा था धिक्कार मैं,
इस जीवन के साथ अपने सपनों का,
कर रहा था तिरस्कार मैं ।
कवि-अंबर श्रीवस्तव