‘मान्यताओं के सिक्के’
“पुल से नीचे पानी की साय-साय हो रही थी।नगर की जानी-मानी पवित्र नदी जो बह रही थी इधर से।पुल से गुजरने वाला हर आदमी उस नदी में अपनी छोटी-छोटी मन्नतों के लिए एक-एक सिक्का फेंककर जा रहा था। मानो अपनी इच्छाओं की पोटली बांधकर पुल से नीचे फेंक रहे हो,और वो नदी ईश्वर की देवदूत बनकर उनको ब्रह्माण्ड के स्वामी तक ले जा रही हो।
वही थोड़ी दूरी पर फटे -पुराने कपड़ों वाला एक आदमी पुल के किनारे पर खड़ा था। जिसके रोम रोम से पसीने की गंध आ रही थी। जो सवेरे से चंद सिक्कों के मुआवजे के बदले उसे मिली थी। मगर उसकी आँखें रुखी थी, हाथों की उँगलियाँ काँप रही थी। कानों में आवाजें गूंज रही थी….कर्ज,कर्ज,कर्ज…भूख का कर्ज,परिवार का कर्ज,जमींन का कर्ज…उसने आँखें बंद की और अपनी इच्छाओं की पोटली नदी में फेंक दी।
सब लोग चिल्लाने लगे…वो आदमी…गिर गया… मर गया….बचाओ …बचाओ.. मगर .मान्यताओं के सिक्के अब तक नदी की गहराई में समा चुके थे।