“मानुष “
यौवन तेरा ढ़लता जाये
क्य़ों, तू प्राणी समझ ना पाये?
बसन्त जाये तो पतझड़ आये
पतझड़ में भी जो सम रह पाये
असल में मानुष वही कहलाये
सांसारिक बन्धन तुझे लुभायें
रह-रहकर तेरा मन भरमायें
कीचड़ में जैसे कमल खिले
कीचड़ उसको छू ना पाये
सांसारिक भोगों के कीचड़ में
कमल की भांति जो रह पाये
असल में मानुष वही कहलाये
वानप्रस्थ की उम्र जब आये
भोगी से जोगी बन जाये
ईश्वर भक्ति में लौ लगाये
बुलावा आये जब काल का
अपनी करनी पे ना पछताये
अपना मार्ग प्रशस्त कर जाये
असल में मानुष वही कहलाये
पंचतत्वों का बना शरीर
पंचतत्वों में ही मिल जाय़े
अन्त समय में अग्नि “शकुन”
तुझे जलाये, मुट्ठी भर राख
गंगा बहा ले जाये
मुढ़ से ज्ञानी बन जाये
काया को परमार्थ में लगाये
असल में मानुष वही कहलाय़े ||
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर