मानव
चाह है आकाश जैसी
असीमित, विशद,विस्तृत।
क्षमताएं छुई-मुई सम
संकुचित, भीत,लज्जित।
आदर्श गिरि के शिखर इव
मौन,प्रताड़ित, विगलित।
मानस नदी की धार-सा
उद्वेलित , निर्वासित !
©सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’
चाह है आकाश जैसी
असीमित, विशद,विस्तृत।
क्षमताएं छुई-मुई सम
संकुचित, भीत,लज्जित।
आदर्श गिरि के शिखर इव
मौन,प्रताड़ित, विगलित।
मानस नदी की धार-सा
उद्वेलित , निर्वासित !
©सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’