मानव शरीर पाकर भी
मानव शरीर पाकर भी
हम ये बात न सोच सके
मानव शरीर क्यूं पाया है
हम ये सत्य न खोज सके,,
ना खोज सके किस शून्य में जा के
हम विलीन हो जाते हैं,
ना शोध सके किन भावों से
इतने मलिन हो जाते हैं,,
ना जान सके ये मन कैसे
पावन,विशुद्ध हो पाता है
कैसे इस सत्य की प्राप्ति हेतु
सिद्धार्थ, बुद्ध हो जाता है,,
किस परम सत्य के घटित
होने से स्वर्ग-द्वार खुल जाता है
मन-लोभ-मोह मिट जाता है
सब राग-द्वेष धुल जाता है,,
सब छद्म आवरण हटते हैं
मन की आँखें खुल जाने से
हर ओर उजाला होता है
यह सत्य-भेद मिल जाने से।।