मानव मन का सर्वश्रेष्ठ उल्लास है होली-1
मानव मन का सर्वश्रेष्ठ उल्लास है होली
सुशील शर्मा
होली का नाम आते ही मन रंगों के बिछावन पर लोटने लगता है|रंग बिरंगे चेहरे भाभियों और देवरों का मजाक मन में कुलांचे मार ने लगता है |मानव मन के उत्कृष्ट उल्लास का नाम होली का त्यौहार है | होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है।
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। जैमिनी के पूर्वमीमांसा सूत्र, जो लगभग 400-200 ईसा पूर्व का है, के अनुसार होली का प्रारंभिक शब्द रूप होलाका था। जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा संपादित किया जाना चाहिए। काठक गृह्य सूत्र के एक सूत्र की टीकाकार देवपाल ने इस प्रकार व्याख्या की है:-
होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते।तत्र होलाके राका देवता।
(होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसमें राका (पूर्णचन्द्र) देवता हैं।)
होलाका संपूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीड़ाओं में एक है। वात्स्यायन इसके अनुसार लोग श्रृंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगंधित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं। लिंगपुराण में उल्लेख है कि फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।
पौराणिक महत्व
वराह पुराण में इसे पटवास-विलासिनी (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) कहा है।हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था। उसने अपने पिता के बार-बार समझाने के बाद भी विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ी। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए किन्तु वह सफल नहीं हुआ। अन्त में, उसने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठे। क्योंकि होलिका एक चादर ओढ़ लेती थी जिससे अग्नि उसे नहीं जला पाती थी। होलिका जब प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठी तो वह चादर प्रह्लाद के ऊपर आ गई और होलिका जलकर भस्म हो गई। तब से होलिका-दहन का प्रचलन हुआ।वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। इस अन्न को होला कहा जाता है, इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। कुछ लोग इस पर्व को अग्निदेव का पूजन मात्र मानते हैं। मनु का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है। अत: इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है।
होली की ऐतिहासिक यात्रा
होली मुक्त स्वच्छंद हास-परिहास का पर्व है.यह सम्पूर्ण भारत का मंगलोत्सव है.फागुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्य लोग जौ की बालियों की आहुति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरंभ करते हैं,कर्मकांड में इसे ‘यवग्रयण’ यज्ञ का नाम दिया गया है.बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है.इसलिए होली के पर्व को ‘गवंतराम्भ’ भी कहा गया है. होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है,”सहस्त्र मधु मादक स्पर्शी से आलिंगित कर रही सूरज की इन रश्मियों ने फागुन के इस बसंत प्रातः को सुगन्धित स्वर्ण में आह्लादित कर दिया है.यह देश हंसते-हंसाते मुस्कुराते चेहरों का देश है.” जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है। | महाकवि वाणभट्ट ने कादंबरी में राजा तारापीड़ के फाग खेलने का अनूठा वर्णन किया है.भवभूति के मालतीमाधव नाटक में पुरवासी मदनोत्सव मनाते हैं.यहाँ एक स्थल पर नायक माधव सुलोचनामालतीके गुलाबी कपोलों पर लगे कुमकुम के फ़ैल जाने से बने सौंदर्य पर मुग्ध हो जाता है.राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में मदनोत्सव पर झूला झूलने का भी उल्लेख किया है.
‘नारद पुराण’ व ‘भविष्य पुराण’ जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों में और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है | बिंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है|इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था |इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है| इनमें प्रमुख जैमिनी के पूर्व मीमांसा और गार्ह्य-सूत्र हैं |
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबेरुनी जो एक प्रसिद्ध फारसी विद्वान्, धर्मज्ञ, व विचारक थे ने भी अपनी एक ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में वसंत में मनाए जाने वाले ‘होलिकोत्सव’ का वर्णन किया है |
मुस्लिम कवियों ने भी अपनी रचनाओं में होली पर्व के उत्साहपूर्ण मनाये जाने का उल्लेख किया है।
मुग़ल काल और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ और जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है | राजस्थान के एक प्रसिद्द शहर अलवर के संग्रहालय के एक चित्र में तो जहाँगीर को नूरजहाँ के साथ होली खेलते हुए दर्शाया गया है | इतिहास में शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज़ ही बदल गया था | इतिहास में शाहजहाँ के ज़माने में होली को‘ईद-ए-गुलाबी’ या ‘आब-ए-पाशी’ कहा जाता था जिसे हिन्दी में ‘रंगों की बौछार’ कहते हैं| अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के बारे में प्रसिद्ध है कि वह तो होली के इतने दीवाने थे कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे | मेवाड़ की चित्रकारी में महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे।
भारत वर्ष का उल्लास पर्व
मथुरा में बरसाने की होली प्रसिद्ध है। बरसाना राधा जी का गाँव है जो मथुरा शहर से क़रीब 42 किमी अन्दर है। यहाँ एक अनोखी होली खेली जाती है जिसका नाम है लट्ठमार होली। बरसाने में ऐसी परंपरा हैं कि श्री कृष्ण के गाँव नंदगाँव के पुरुष बरसाने में घुसने और राधा जी के मंदिर में ध्वज फहराने की कोशिश करते है और बरसाने की महिलाएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं और डंडों से पीटती हैं और अगर कोई मर्द पकड़ जाये तो उसे महिलाओं की तरह शृंगार करना होता है और सब के सम्मुख नृत्य करना पड़ता है, फिर इसके अगले दिन बरसाने के पुरुष नंदगाँव जा कर वहाँ की महिलाओं पर रंग डालने की कोशिश करते हैं। यह होली उत्सव क़रीब सात दिनों तक चलता है। इसके अलावा एक और उल्लास भरी होली होती है, वो है वृन्दावन की होली यहाँ बाँके बिहारी मंदिर की होली और ‘गुलाल कुंद की होली’ बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृन्दावन की होली में पूरा समां प्यार की ख़ुशी से सुगन्धित हो उठता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि होली पर रंग खेलने की परंपरा राधाजी व कृष्ण जी द्वारा ही शुरू की गई थी।
राजस्थान की होली मुख्यत: तीन प्रकार की होती है। माली होली- इसमें माली जात के मर्द, औरतों पर पानी डालते है और बदले में औरतें मर्दों की लाठियों से पिटाई करती है। इसके अलावा गोदाजी की गैर होली और बीकानेर की डोलची होली भी बेहद ख़ूबसूरत होती है।
पंजाब में होली को ‘होला मोहल्ला’ कहते है और इसे निहंग सिख मानते है। इस मौके पर घुड़सवारी, तलवारबाज़ी आदि का आयोजन होता है।
हरियाणा की होली भी बरसाने की लट्ठमार होली जैसी ही होती है। बस फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि यहाँ देवर, भाभी को रंगने की कोशिश करते है और बदले में भाभी देवर की लाठियों से पिटाई करती है। यहाँ होली को ‘दुल्हंदी’ भी कहते हैं।
दिल्ली की होली तो सबसे निराली है क्योंकि राजधानी होने की वजह से यहाँ पर सभी जगह के लोग अपने ढंग होली मानते है जो आपसी समरसता और सौहार्द का स्वरूप है। वैसे दिल्ली में नेताओं की होली की भी ख़ूब धूम होती है।
कर्नाटक में यह त्योहार कामना हब्बा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव ने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से जला दिया था। इस दिन कूड़ा-करकट फटे वस्त्र, एक खुली जगह एकत्रित किए जाते हैं तथा इन्हें अग्नि को समर्पित किया जाता है। आस-पास के सभी पड़ोसी इस उत्सव को देखने आते हैं।इसके अलावा बिहार की फगुआ होली, महाराष्ट्र की रंगपंचमी, गोवा की शिमगो गुजरात की गोविंदा होली, और पश्चिमी पूर्व की ‘बिही जनजाति की होली’ की धूम भी निराली है। दक्षिण भारत में होलिका के पाँचवे दिन रंग-पंचमी के रूप में यह उत्सव मनाया जाता है। पूरे भारत में यह उत्सव विभिन्न तरीक़े से मनाया जाता है। उत्तर भारत में वृंदावन, मथुरा, बरसाना आदि की होली बहुत प्रसिध्द है। बरसाना में राधा-रानी मंदिर के प्रांगण में लट्ठमार होली होती है जिसमें स्त्रियाँ लाठियों से पुरुषों पर प्रहार करती हैं एवं होली गीत गाती हैं। वृंदावन का रसिया गायन, वहाँ का होली नृत्य; जो कृष्ण और राधा की होली खेलने को दर्शाता है; बहुत प्रसिध्द है। बिहार प्रांत में उत्तर प्रदेश की भाँति ही होली होती है।भोजपुरी भाषा में इस उत्सव में गाए गए फाग वहाँ की विशेषता है। अवध,मगध,मध्य-प्रदेश,राजस्थान,मैसूर,गढ़वाल,कुमायूं,ब्रज सभी क्षेत्रों में होली की अत्यंत उल्लास औत उमंग देखने को मिलती है। बंगाल एवं बांग्लादेश में होलिका-दहन नहीं होता, वहाँ इसे दोल-यात्रा या वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसमें कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है।
साहित्य में होली
यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णताभरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है । परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है । यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं । होली नई फसलों का त्योहार है, प्रकृति के रंगो में सराबोर होने का त्योहार है।
राधा-कृष्ण के जीवनकाल से ही अनुराग के इस त्योहार को ब्रज के गांव-गांव, घर-घर में लोग राग-रंग, मौज-मस्ती, हास-परिहास, गीत-संगीत के साथ परंपरा से आज तक मनाते आ रहे हैं। ब्रज में ऐसा कोई हाथ नहीं होता जो गुलाल से न भरा हो, पिचकारियों के सुगंध भरे रंग से सराबोर न हो।
मति मारौ श्याम पिचकारी, अब देऊंगी गारी।
भीजेगी लाल नई अंगिया, चूंदर बिगरैगी न्यारी।
देखेंगी सास रिसायेगी मोपै, संग की ऐसी है दारी।
हंसेगी दै-दै तारी।
ब्रज की होली की रसधारा से जुड़ा एक तीर्थ है बरसाना। फागुन शुक्ला नवमी के दिन नंदगांव के हुरिहारे कृष्ण और उनके सखा बनकर राधा के गांव बरसाने जाते हैं। बरसाने की ललनाएं राधा और उसकी सखियों के धर्म का पालन कर नंदगांव के छैल छकनिया हुरिहारिरों पर रंग की बौछार करती हैं
फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर
घेर लई सब गली रंगीली।
छाय रही छवि घटा रंगीली।
ढप-ढोल मृदंग बजाए है।
बंशी की घनघोर।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका ‘रजउ’ को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली ‘चौघड़िया फाग’ को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है।
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी।
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी।
‘ईसुर’ कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी।
मूलतः होली का त्योहार प्रकृति का पर्व है। इस पर्व को भक्ति और भावना से इसीलिए जोड़ा जाता है कि ताकि प्रकृति के इस रूप से आदमी जुडे और उसके अमूल्य धरोहरों को समझे जिनसे ही आदमी का जीवन है।
मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं।
भारत के बढ़ते जलसंकट के मद्देनज़र हमें पानी बचाने के लिये एक साथ मिलकर काम करना चाहिये और होली जैसे अवसर पर पानी की बर्बादी रोकना चाहिये।होली खेलने वालों ने अगर प्राकृतिक रंग या गुलाल से होली खेली तो कुल 36 लाख 95 हजार 518 लीटर पानी की बचत होगी। धरती पर लगभग 6 अरब की आबादी में से एक अरब लोगों के पास पीने को भी पानी नहीं है। जब मनुष्य इतनी बड़ी आपदा से जूझ रहा हो ऐसे में हमें अपने त्योहारों को मनाते वक्त संवेदनशीलता दिखानी चाहिये। इस होली पर जितना सम्भव हो अधिक से अधिक पानी बचाने का संकल्प लें। सभी को प्यार के रंग में रंग देने वाले होली के त्योहार पर हर व्यक्ति अपने और दूसरों के जीवन में खुशियों के रंग भर देना चाहता है। कोई अबीर, गुलाल से तो कोई पक्के रंग और पानी से होली खेलता है, लेकिन आज भी कुछ लोग हैं जो प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तियों व जड़ी-बूटियों से रंग बना कर होली खेलते हैं। उनके अनुसार इन रंगों में सात्विकता होती है और ये किसी भी तरह से हानिकारक नहीं होते। होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छंृखलता आदि के जरिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है।