“मानव के जन्म तथा समाप्त तक जीवन व्रत्ति”
जैसी विधा में हम पैदा हुए हैं,
जीवन संस्कृति विधा नहीं मालुम।
घर परिवार समाज सभी आये होंगे,
कारण औचित्य जो उनको भी मालुम नहीं।
अपना सहायक सहारा मान लेते,
उस हेतु खान पान कराके आत्मिक भाव देते
रोना चिल्लाना चेहरे संग हाथ पैरसभीचलाते
चाह आकांक्षा हेतु विविध कृति करते।
जिस घर परिवार में जो कोई पैदा होता,
जाति परम्परा उस विधा की पा जाते।
रीति रिवाज उन लोगों के पा जाते,
उनकी जैसी संस्कृति में जीवन चलाते।
प्रतिभा प्रतिष्ठा इज्ज्त नाम के लिए,
अपनी स्थिति जैसी विविध विधा कराते।
ज्ञान विज्ञान के गुण भाव कोई कुछ भी नही,
जिस क्रति चलते उसी में चलते रहते।
अदा विधा की कैसी नजाकत,
बोल हाथ पैर नेत्र सभी काम करते।
शब्द वाणी भाव में जितना आकर्षण,
द्रष्टित जगह में सबके दिल जीत लेते।
अंतर्शक्ति जिसकी विधा प्रबल है,
बिना किसी चाह के सबमें उतर जाते।
जिन वाणी द्रश्य में निर्मल मौलिकता,
अपनी मौलिक शक्ति से अवचेतन में रुकते।
प्रतिभा प्रतिष्ठा बहुत खुद चाहते,
बिना मौलिक रुप के रंग रुप दिखाते।
लोगों का दिल स्वीकारता नहीं,
हास्य बातें बताकर वाह वाह सुनते।
मौलिक संस्कृति ब्यापक और गहरी है,
पहुंचने वाले लोग खुद डूब कर समाप्त हुए।
धन दौलत का आभास नहीं,
मौलिक द्रष्टता में वह सजीवित रहते।
मौलिक संस्कृति खत्म होने पर,
अध्यात्मिक भाव दिखायी पड़ते नहीं।
कष्ट विवसता बहुत उसमें दिखती,
सबको झेलकर आम विधा जैसे जीते।
उक्त विधा करने में उर्जी शक्ति,
रचनात्मक विधाएं सब समाप्त हो जाती।
जीवन संचालन हेतु उद्रित विधा बनाने में,
संसारिक भाव लेकर आम तरह जीते।
जीवन संस्कृति हेतु ज्ञान हेतु स्कूल,
शिक्षा दिक्षा लेकर जीवन कृति में चलते।
आसय आधार कुछ होता नहीं,
नौकरी, खेती, ब्यवसाय, सामान्यआदिकरते
जीवन चलाने हेतु आय के साधन यह,
घर परिवार ठीक कराके रिश्ते नाते दिखते।
धन और ज्ञान की विधा बनाकर,
राजनैतिक, वैज्ञानिक, अर्थ विधा बनाते।