मानव आधुनिकता की चकाचौंध में अंधा होकर,
मानव आधुनिकता की चकाचौंध में अंधा होकर,
बिखेरने लगा है अपना ये प्यारा संसार।।
रिश्ते सारे सिकुड़ने लगे हैं ,
छोटी होने लगी है मोतियों की ये डार।।
स्वार्थ अब यहाँ लगा है पनपने ,
खत्म होने लगे हैं पूर्वजों के संस्कार।।
खत्म हो चला है अपनापन
संपत्ति की ही है सबको दरकार।।
हसरतों को पुरा करने की चाहत में
छोटी-छोटी बातों पर होने लगी है अब यहाँ पर रार।।
थोड़ा-सा भी नही हिचकते हैं,
भाई ही भाई पर करने से अब प्रहार।।
बुजुर्गों का भी नही रखते हैं ख्याल,
महिलाओं के संग भी ठीक से न करते हैं व्यवहार।।
मेरी कलम भी चिंता में है डुबी,
आखिर बहुत तेजी से घटने लगे हैं सामुहिक परिवार।।