मानवी दर्द
मानवी दर्द बरकरार (कायम )है।
यह समाज का ईजाद है।
सम्मानाओं का गुलामी लेकर ।
अपमानों का घूंट पीकर।
चुप स्वयं अकेले।
ना कोई रिश्तेदार ना समाज।
अथाह जिंदगी के पास,
मानवीय दर्द बरकरार है।
कोई कहता ऊपर वाले की मार है।
कोई मेरा नसीब ही खराब है ।
सुन सोचती, हकीकत,
रेप – पुरूष करता है।
तिल – तिल मरना स्त्री को पड़ता है ।
यह कहां का इंसाफ है।
दरअसल इंसानियत का दरकार है।
इसीलिए मानवीय दर्द बरकरार है ।
कितना डरूँ मैं
पूरे विश्व में मेरी यहीं हालात हैं ।
मानवी दर्द बरकरार है_ डॉ. सीमा कुमारी , बिहार
(भागलपुर )दिनांक-11-10-021 की स्वरचित रचना हैं जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं