मानवीय चिंतन
(भोजपुरी कुण्डलिया)
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बृक्ष ना खाला फल आपन
नदी ना पीये नीर,
लेकिन शेखरा चुपके-चुपके
खाजाता सब खीर।
खाजाता सब खीर
शर्म भी शर्माजाला,
शेखरा के ई हाल देख
बा मौन जमाना।।
आज के मानव शेखरे जईसन
फिर भी चूप बा ईश,
“सचिन” कहे काहे आज के मानव
बनें ना चाहे बृक्ष।।
……
मुह में राम बगल में छूरी
आज के ई दस्तूर,
ऐईसे त मीटजाई मानवता
कुछ त करीं हजुर।
कुछ त करीं हजुर
मानवता रहे सलामत,
ना त इंसा मिट जाई
बस रही मलामत।।
सुनी प्रभु मानवता बचाईं
बात बहुत ईं गुढ,
अगर मलामत बचल जहाँ में
देखी के राऊर मुंह।।
……
माया से काहे सबे,
रहल बा नाता जोड़
आईल बा जे जाई ऊ
ऐह धरती के छोड़।
ऐह धरती के छोड़
संग कुछ ना लेजाई,
चाहे केतनों कईले
केहू गलत कमाई।।
“सचिन” मनुज पर पड़ल ई
कईसन उल्टा छाया,
वश मे ओहके राखे
अपना हरपल माया।।
©®…..
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”