———मानवता का दीप ——–
———मानवता का दीप ——–
उगते सूरज का मैं मन से ,अति अभिनन्दन करता हूँ–
सप्त अश्व पर चढ़कर आता ,उसका वंदन करता हूँ–
पवन देव की मधुर सुगंध का ,ये मन अक्सर कायल है–
खग-मृग-जलचर की हत्या से , हुआ हृदय ये घायल है–
नदी-पर्वत-सागर सभी की,पूजा अपना धर्म रहा–
सूरज-चाँद-सितारे सारे ,सभी को अर्घ्य कर्म रहा–
निराकार के सँग में हमने ,नश्वर को भी पूजा है–
मात-पिता की गोदी जैसा, स्वर्ग न कोई दूजा है–
श्रद्धा की पूजा में अक्सर ,मातृ भाव माना हमने–
नदिया-गैया जन्म-धरा को ,माँ का रूप दिया हमने–
जन कल्याणी भावों को भी ,देव-तुल्य ही माना है–
दिनकर-सिन्धु-चन्द्र-तरुवर को ,देवों सा सम्माना है–
राम-कृष्ण की लीला के हम ,रहे सदा अनुरागी हैं–
देवों की संस्कृति में हम,पले-बढे बड़भागी हैं–
सद्भावों में , सदचारों में ,जीना हमने जाना है–
सर्व-धर्मी पावन गुच्छ को,अपना हमने माना है–
राजनीति के काले रस में ,डूबी भूले खूब हुई–
वोटों की दलदल के कारण ,छुआछूत भी खूब हुई–
गिरा दिया है मानवता को ,विष की गहरी खाई में–
उद्दण्डता तो रच रही है ,पर्वत तृण सी राई में–
कूप-कूप का जल दूषित है ,इस आतंकी परछाई में–
निर्दोषों का शीश कलम है ,हैवानों की चाही में–
रो रही है मानवता और बिलख रहे हैं धर्म यहां–
विश्व -बन्धुता पर आतंकी, करते रहे प्रहार यहां–
संविधान की धारा को भी ,परमारथ में बदल धरो–
आतंकी के मंसूबों को ,,सर्प की तरह कुचल धरो–
जातिवादी व्यवस्था के भी ,सब मिलकर के प्राण हरो–
जन-जन में भी भेद करे जो ,उस धारा का नाश करो–
मानवता का दीप जलाकर ,गीत सुनाने आया हूँ–
मैं हर धर्म-जाति के जन को ,गले लगाने आया हूँ–
हम सब मिलकर साथ चलें तो , परिवर्तन भी आएगा–
मिल-मिल कर सरिताओं का जल ,सागर सा लहरायेगा–
ईर्ष्या की गांठों को मिलकर ,जितना भी सुलझा लेंगे–
जीवन-रथ को उतना ही हम ,काल-पथ पर बढ़ा लेंगे–
शनै -शनै विद्वेषी मेघा ,ज्ञान गगन में खो जांगे —
झंकृत मंगल ध्वनियों को भी ,ऊर्जा रूप बना लेंगे–
धिक्कारो दानवता को सब ,मानवता का वरन करें–
उठती विष की ज्वालाओं का ,मिलकर हम सब दमन करें–
******* सुरेशपाल वर्मा जसाला