मात्र त्योहारों की औपचारिकता
तयौहार मनाने की रह गई है केवल औपचारिकता,समाप्त हो रही है इंसानों के दिलों से आत्मीयता है इंसान
औपचााारिकता निभाते हुए असली नाते मत भूल जानाा , किसी का अहसान मत भूल जाना , इतने भी उपर मत उठना कि स्वयम कि पहचान ही भूल जाए ये मत भूल कि भूमि पर कितने खरे सभी कार्य भूमि में ही समाहित हो जाने हैं तब न मैं बचता है न अहंकार बचता है रह जाता है मात्र नश्वर शरीर अच्छा कार्य ही हमेशा याद रहता है फिर अहनकार कयो ?