मातृ-रचना
#मात्रप्रेमियों को समर्पित एक #रचना।
मातृ दिवस है अभी अधूरा…
घर आँगन क्यों है अभी सूना…
प्रसव-वेदना सहकर ,नौ माह गर्भ में पाला…
गीले में सोके खुद,सूखे में ही सुलाया…
अमृतपान से तुमकों निरोगी बनाया…
कनिष्ठका पकड़कर चलना तुम्हें सिखाया..
तोतली बोली से घर को महकवाया…
जीवन की पाठशाला से आचरण सिखाया..
ममत्व के कौरों से फिर हष्ट पुष्ट बनाया..
पाठशालारोही,कैशोरोन्मुख किया..
निज प्रयत्नों से तुझको काबिल है फिर बनाया..
निज सब कुछ तुमपर वार कर दिया..
अंधे की लाठी तू ही,तूने उसे भुलाया।
माया,भोग,विलास में स्वर्ग(बचपन का घर) छोड़ आया..
सँवरते हुए भाग्य में दुर्भागी बन आया..
उसकी तप साधना को खण्डित कर आया।।
अब भी नही है बिगड़ा,चल माँ के पाँव पकड़ ले
जन्नत नसीब होगी,शोहरत नसीब होगी।
माँ की परे है महिमा,त्रिदेवों ने गुण गाया
सम्पूर्ण ब्रह्मांड माँ का स्वरूप है,उस जगजननि से पहले जन्मदायिनी है…जन्मदायिनी है…
दोहा–जिन चरनन में स्वर्ग है,उनकों क्यों न थाम।
ऐ शठ अब भी जाग जा,चाहे यदि कल्याण।।