माता- पिता के प्रति बच्चों का कर्तव्य
हमारी भारतीय संस्कृति व परंपरा के अनुसार माता- पिता को परमपिता परमेश्वर से भी श्रेष्ठ माना गया है । ईश्वर को हम देख नहीं सकते…. बस हृदय में उस सर्वोच्च सत्ता की कल्पना कर आस्था के वशीभूत रहते हैं …. पर जन्मदाता माता- पिता के स्वरूप का हमें नित्य दर्शन होता है… उनकी छत्र- छाया में हमारा पालन- पोषण बड़े लाड़- प्यार से होता है । बच्चों को विकसित होते देख माता- पिता फूले नहीं समाते… व मन ही मन न जाने कितने ख़्वाब बुन लेते हैं ।उन्हें शिक्षित कर जीवन – पथ पर अग्रसर होने हेतु प्रेरित करते हैं।विवेक, सदाचार, संयम जैसे सद्गुण का सबक सिखा जीवन के दुर्गम व कँटीली राहों पर बढ़ने हेतु उत्साहित करते हैं।सामाजिक व पारिवारिक दायित्वों का बोध करा उन्हें बहुमुखी प्रतिभाशाली बना , अच्छे व बुरे का ज्ञान दे उनका मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
अत: बच्चों का भी कर्तव्य बनता है कि व्यस्क होने के बाद घर व बाहर की ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुये अपने जनमदाताओं का विशेष ध्यान रखें ।यों तो हमारे भारतीय परिवेश में बच्चे माता- पिता को पूर्ण सम्मान दे उनके साथ ही जीवन- यापन करते हैं…. उनको ख़ुश देखकर, उनकी इच्छाओं की पूर्ति कर मानसिक संतुष्टि प्राप्त करते हैं। वृद्धावस्था में माता- पिता के स्वास्थ्य का भरपूर ध्यान रखना, उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति अपना प्रथम कर्तव्य समझ बच्चों को कुछ पल उनके साथ बैठकर उनके मन की बातें भी सुननी चाहिये जिससे माता- पिता को आत्मसंत्तुष्टि मिल सके ।यही वे वट- वृक्ष हैं जिनकी छाया तले पौधे व व्यस्क होते पेड़ स्वयं को सुरक्षित समझते हैं क्योंकि बड़े बुज़ुर्ग ही मुसीबत के समय अपने आँचल की शीतल छाया बच्चों को देते हैं ।अत: बच्चों को भी अपने सेवा- सुश्रुषा धैर्य रूपी जल से उन्हें सींचते रहना चाहिये जिससे समय आने के पूर्व ही ये वृक्ष न मुरझायें ।
आज आधुनिक युग मे पाश्चात्य रंग में रंगकर बहुत से बच्चे स्वार्थ के वशीभूत हो माता- पिता को दर- दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर देते हैंया वृद्धाश्रमों में छोड़ देते हैं । वे भूल जाते हैं….. जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे….. उनके बच्चे भी भविष्य में अपने माता- पिता के साथ वैसा ही करेंगे ।
कहा गया है कि माता- पिता के चरणों में ही स्वर्ग है…. अत: जिस स्वर्ग की प्राप्ति के लिये हम पूजा- पाठ व धार्मिक कृत्य करते है… उसकी जगह माता- पिता की सेवा कर स्वर्ग पाना ज़्यादा फलीभूत है । उनकी सेवा से ही आशीर्वाद मिलता है…. फलस्वरूप बच्चों पर आई मुसीबतें भी दस्तक दे लौट जाती हैं । अत: माता- पिता के उपकारों का ऋण कोई नहीं चुका सकता तथापि उन्हें सामर्थ्यानुसार उचित मान व सम्मान दें… उनको अपने हृदय में वास दें …. इति
आज का विषय बहुत विस्तृत है… पर मैं अपनी लेखनी को यहीं रोक रही हूँ ।।
मंजु बंसल “ मुक्ता मधुश्री”
जोरहाट
( मौलिक व प्रकाशनार्थ )